Shriram Iyengar
मुम्बई, 14 Mar 2020 8:30 IST
इस नेटफ्लिक्स ओरिजिनल फ़िल्म में सूनी तारापोरवाला ने वर्ग और धर्म के बंधनों को पार कर डान्सर्स के संघर्ष को दर्शाया है, जिसमे वे खुद का रास्ता ढूंढते हैं।
एक सही मौके पर ज्यूलियन सैंड्स का गुस्सैल किरदार कहता है, "बैले गलत नहीं है। धर्म के नाम पर भेदभाव गलत है।" ये एक ऐसा पल हो सकता था जहाँ सूनी तारापोरवाला की फ़िल्म एक ऐसा संदेश दे सकती के कला सभी भेदभाव को मिटाने का ज़रिया है। पर ये उस किस्म की फ़िल्म नहीं है। तारापोरवाला ने सूक्ष्म रूप से वर्ग के नाम पर भेदभाव, सांप्रदायिक कलह और इन सबको जोड़ता एक शहर, इस पर एक सामाजिक-राजकीय टिपण्णी की है।
इस नेटफ्लिक्स ओरजिनल फ़िल्म में मनीष (मनीष चौहान) और आसिफ (अचिन्त्य बोस) इन दो युवा, निपुण लेकिन बिलकुल अलग डान्सर्स की कहानी दर्शायी गयी है, जो समाज में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मनीष उर्फ़ निषु टेलीविजन के रियलिटी शो से उभरा एक स्टार है, पर उसके वास्तविक जीवन में उसके पिता (विजय मौर्य) का वर्चस्व है, जो के एक टैक्सी ड्राइवर है। दूसरी ओर आसिफ अपने गली के दोस्तों के साथ खुश है। जब उसके पिता घमंडी और कट्टर धार्मिक चाचा के सामने मान जाते हैं, तो वो गुस्से में अपने बालों का अंदाज़ बदल देता है।
इस फ़िल्म में ज़ोया अख़्तर की गली बॉय (२०१९) से कुछ समानताएं देखि जा सकती हैं। इसका माहौल और अंदाज़ गली बॉय जैसा ही है, मगर फ़िल्म की प्रस्तुति अलग है। ज़ोया ने वर्गों को पूरी तरह से अलग अलग दर्शाया है, पर ये बैले में ये वर्ग भिन्नता इतनी साफ़ नहीं है। गरीब निषु आसानीसे एक अमीर लड़की से दोस्ती रखता है, वहीं आसिफ का पिज़्ज़ा डिलीवरी करता भाई डान्स स्टुडिओ के मैनेजर के साथ दोस्ती कर लेता है और अपने भाई को एक फ्री पास दिलवा देता है। ये सीमाएं बड़े शहरों में स्पष्ट दिखती नहीं है और ये तभी सामने आती हैं जब कोई दूसरे की जगह पर अतिक्रमण कर लेता है। सूक्ष्म रूप से ये भेद हर किसी के दिल में रहता है।
इसी लिए जब आसिफ दूसरे समाज के लड़की को छेड़ता है या निषु का बैले सीखना पकड़ा जाता है, उन्हें उनकी जगह दिखाई जाती है। उनकी मुक्ति डान्स में ही है। साउल एरॉन (सैंड्स) जैसा गुस्सैल प्रशिक्षक उन्हें बैले सिखाता है। साउल इन लड़कों को इस तरह से डान्स सिखाता है के दोनों को अमरीका में बैले सीखने के लिए चुना जाता है। भारत की ओर से जानेवाले ये दो पहले प्रोफेशनल बनते हैं।
तीनों इस तरह से घुल मिल जाते हैं जैसे वे अपने अवकाश में अपने परिवारों को ढूंढ रहें हों। आसिफ का निषु की मदद के लिए खड़े होना, साउल का इन दोनों को अमरीका जाते हुए अपनी विरासत देना ऐसे क्षण बड़े ही सूक्ष्म और तरल रूप से दर्शाये गए हैं। डान्सर्स के समुदाय पर भी ये फ़िल्म प्रकाश डालती है। ऐसा समुदाय, जो इस स्पर्धात्मक इंडस्ट्री में एक साथ सीखता है, सिखाता है और एक दूसरे के लिए खड़े भी होता है।
तारापोरवाला की फ़िल्म मनीष चौहान और अमीरुद्दीन शाह पर बनायीं गयी उन्ही की एक डॉक्यूमेंटरी पर आधारित है। चौहान ने अपना किरदार खुद निभाया है और उनके भाव स्क्रीन पर वास्तविक लगते हैं। उनके विरुद्ध है अचिन्त्य बोस का आसिफ। वो एक बाग़ी है, गुस्सैल है। बोस ने उनके हालात के निचे दबे हुए लड़के को बेहतरीन रूप से पेश किया है। सैंड्स ने भी अच्छा काम किया है। उनके एकाकीपन के पल बेहतरीन दर्शाये गए हैं। ऐसा लगता है के इसे और अधिक दर्शाया गया होता तो और अच्छा लगता।
ये ऐसे क्षण हैं जहाँ फ़िल्म के सिनेमैटिक पल भावनाओं पर हावी हो जाते हैं। पर फिर भी ये उबाऊ या बेकार नहीं लगते। मौर्य, दानिश हुसैन और जिम सर्भ सहायक किरदारों में इसे और बेहतरीन बनाते हैं। उनके किरदार उतने निखरे हुए भले ही न हों, पर फिर भी वे अपनी छाप छोड़ जाते हैं। मौर्य और सर्भ के कुछ अच्छे दृश्य आपको ऐसा अनुभव देते हैं जिसे आप और अधिक अनुभव करना चाहेंगे।
फ़िल्म का कथासूत्र कभी कभी यहाँ वहाँ भटकते रहता है। डान्स मूवमेंट की तरह यहाँ कोई ज़बरदस्त पार्श्वसंगीत नहीं देखने मिलता, जो शायद अधिक प्रभावी हो सकता था।
फ़िल्म के तांत्रिक अंगों पर कोई सवाल नहीं उठता। कोरिओग्राफी और डान्स के दृश्य, खास कर इन दो लड़कों के दृश्य, अच्छे लगते हैं। दोनों कलाकार अपने डान्स मूवमेंट्स में कमाल हैं और उनके हावभाव भी अच्छे हैं।
कार्तिक विजय की सिनेमैटोग्राफी अंधेरे और प्रकाशमान दृश्यों के साथ खेलती है। अँधेरे के शॉट्स तो काफ़ी रोचक हैं। शैलजा शर्मा का प्रॉडक्शन डिज़ाइन वास्तविकता को ध्यान में रख कर किया गया है, जिसका उल्लेख भी होना चाहिए।
मगर तारापोरवाला की फ़िल्म में एक केंद्रीय संघर्षबिंदु का अभाव है। शायद उससे इस कहानी को नया पहलु मिलता। दो लड़कों की ये कहानी प्रेरणादायी तो है, मगर अनुमानित है और भावनिक स्तर पर अपना प्रभाव छोड़ने में कम पड़ती है। डान्स मूवमेंट्स की कोरिओग्राफी (श्यामक डावर, सिंडी जॉर्डन और विठ्ठल पाटिल) प्रभावी है।
इन सब के बावजूद तारापोरवाला की फ़िल्म वर्ग भिन्नता वाले इस शहर को सूक्ष्म रूप से दर्शाती है और कला को इसे जोड़ने का मार्ग बताती है। कला के बदलते स्वरुप को दर्शाते हुए कई दीवारें ये कला गिरा देगी ऐसी आशा उत्पन्न करते हुए मनीष और आसिफ की कहानी दर्शायी गयी है। ऐसा हो या न हो, उम्मीदें हमेशा जगी रहनी चाहिए।
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