Mayur Lookhar
Mumbai, 18 Jan 2019 12:15 IST
बेहतरीन स्क्रीनप्ले और जबरदस्त अभिनय की वजह से सौमिक सेन की यह फ़िल्म दर्शको का मनोरंजन करने में कामयाब हुयी है।
“मुझे हीरो बनने की कोई इच्छा नहीं। विलन बनने का बिकुल टाइम नहीं। खिलाडी हूँ, खेल रहा हूँ,” राकेश सिंह बेदरकारी से कहता है। ये किसी बचाव के लिए नहीं कहता, राकेश सिंह इन हर शब्द को जीता है।
वो एक मास्टर खिलाडी है, जो देश भर में शिक्षा का स्कैम चला रहा है। निर्माता और फ़िल्म के मुख्य कलाकार इमरान हाश्मी राकेश सिंह के किरदार के माध्यम से समाज को ये दर्शाते है के शिक्षा का ये बाज़ार राकेश सिंह जैसे लोगो के लिए पैसा कमाने का ज़रिया है।
राकेश सिंह गरीब लेकिन होशियार छात्रों को चुनकर उनसे अमीर लेकिन पढ़ाई में कमज़ोर लड़को को टॉप इंजिनीरिंग, मेडिकल और बिज़नेस स्कुल, कॉलेजे में दाखिला दिलाने में मदद करता है। ये होशियार लड़के इन कमज़ोर छात्रों की जगह परीक्षा में बैठते हैं। बदले में राकेश अपने इन होशियार लड़को को बहोत अच्छी रकम का मुआवज़ा देता है। यही नहीं वो उनको पार्टी और बाकि तरह से भी खुश रखता है।
लखनऊ का राकेश सब कुछ आराम से संभाल रहा होता है लेकिन तभी उसका एक लड़का सत्येंद्र उर्फ़ सत्तू (स्निग्धदीप चैटर्जी) पकड़ा जाता है। पर राकेश सिंह इतनी आसानी से हार मानने वालो में से नहीं, वो मुश्किलों को लाँघ कर भारत भर में अपना जाल बिछाता है। फिर भी उसका गत जीवन उसको कुरेदते रहता है।
निर्देशक सौमिक सेन जिन्होंने इससे पूर्व गुलाब गैंग (२०१४) जैसी असफल फ़िल्म दी थी, अपने पिछले अनुभव से उभरते हुये एक ऐसे किरदार को ले आये हैं जो काफ़ी शातिर है और जिसे नैतिकता से कोई सरोकार नहीं। व्हाय चीट इंडिया के माध्यम से सेन और हाश्मी भारतीय शिक्षा प्रणाली के व्यवहार पर तंज करते हैं जहाँ शिक्षा से ज़्यादा परीक्षा के गुणों को महत्त्व दिया जाता है। १३५ करोड़ की आबादी में लाखो छात्र कुछ चुनिंदा कॉलेजेस में दाखिला लेना चाहते हैं, जहाँ कुछ हज़ार छात्र ही पढ़ सकते हैं। माता पिता का दबाव छात्रों पर हावी होता है। यही अनचाही स्पर्धा फिर पेपर लिक, भ्रष्टाचार, कोचिंग क्लासेस और छोटी संस्थाओ को जन्म देती हैं।
राजकुमार हिरानी की मुन्ना भाई एमबीबीएस (२००३) और ३ इडियट्स में भारतीय शिक्षा प्रणाली पर इससे पहले भाष्य किया गया था और अब व्हाय चीट इंडिया इस क्षेत्र के भ्रष्टाचार पर बात छेड़ रही है।
आज के सन्दर्भ की कहानी, बेहतरीन स्क्रीनप्ले और कलाकारों का दमदार अभिनय, इन वजहों से व्हाय चीट इंडिया मनोरंजक फ़िल्म बनी है।
इमरान के लिए ऐसे शातिर किरदार निभाना नयी बात नहीं है। राजा नटवरलाल (२०१४) में उन्होंने ऐसा चालाक किरदार निभाया है। भले ही राकेश सिंह खतरनाक नहीं है, पर उसे अपने किये पर कोई पछतावा भी नहीं है। कोर्ट में वो अपने हर काम की वाजिब वजह बताता है। अपने निजी जीवन में वो खुद तीन बार इंजीनियरिंग की एंट्रंस फेल हो चूका है जिसके चलते उसके पिता हमेशा उसे कोसते थे। उसका यही भूतकाल शायद उसके आज की वजह बनी है, ऐसा तर्क जोड़ने के लिए रखा गया हो। पर खुद राकेश सिंह को उससे कोई हमदर्दी नहीं।
इमरान इस फ़िल्म में फ्रेश और स्मार्ट लग रहे हैं। चालाक इंसान को बढ़ चढ़ कर बाते करनी की आदत होती है। सिंह अपनी बातो से लोगो का दिल जीत लेता है। वो मुश्किल से गुस्सा दर्शाता है। एक दृश्य में उसका एक लड़का ज़्यादा पैसों की मांग करता है। सिंह उसने उड़ाए हुए गुलछर्रो की याद दिलाता है और लड़का सिंह की बात मान जाता है। इमरान का करिअर पिछले छे वर्षो से डामाडोल है। पर उनके इस प्रदर्शन के बाद क्या व्हाय चीट इंडिया उन्हें फिर से उभरने में मदद करेगी?
राकेश सिंह सिर्फ़ लड़को को ही चुनता है। तो क्या इसका ये मतलब है के लड़कियां धोखाधड़ी नहीं करती? सेन दर्शाते हैं के भारतीय पितृसत्ताक परिवारों में औरतों को समान अधिकार नहीं मिलता। श्रेया धन्वन्तरी नूपुर का किरदार निभा रही हैं, जो की सत्येंद्र की बहन है। जहाँ उनके पिता को सत्येन्द्र से काफ़ी उम्मीदें है, वहीं अपने बेटी से वो सिर्फ़ जल्दी शादी करने की उम्मीद रखते हैं। एक अच्छी पत्नी के लिए लड़के के पास अच्छी डिग्री और बहोत सारा पैसा जरूरी है। क्या माता पिता अपने बच्चों पर उनके सपने नहीं लादते?
मॉडेल और अभिनेत्री श्रेया धन्वन्तरी की ये पहली फ़िल्म है और उन्होंने अपना काम बख़ूबी निभाया है। पिछले वर्ष नयी अभिनेत्रियों में ज़ोया हुसैन और बनिता संधू को हमने मुक्केबाज़ और ऑक्टोबर फ़िल्म में देखा था। श्रेया धन्वन्तरी भी ऐसी ही फ्रेश खोज हैं।
सौमिक सेन, इमरान हाश्मी और कास्टिंग टीम को श्रेया की खोज का क्रेडिट जाना चाहिए। अपने सहज अभिनय से उन्होंने गांव की सीधी सादी लड़की का किरदार बख़ूबी निभाया। उनकी मासूमियत आपका दिल जीत लेती है।
फ़िल्म के सर्वोत्तम कलाकार हैं राकेश सिंह के जीवन की दो औरतें। नूपुर के अलावा राकेश की पत्नी (परवीन) आपको चकित करती हैं। ये सुन्दर, सुशिल और बड़बोली यूपी लहज़े वाली, हमेशा पीछे लगने वाली औरत को देखने का अलग मज़ा है।
फ़िल्म का दूसरा हिस्सा अंदाज़ के मुताबिक ही चलता है। वो पता चल जाता है जब नूपुर राकेश के जीवन में वापस आती है। पर राकेश उस पर कैसे शक नहीं करता इस बात को समझ पाना मुश्किल है। “मैं पेपर लीक नहीं करता। बिज़नेस के लिए वो ठीक नहीं। ना ही देश के लिए,” राकेश कोर्ट में बोलता है। तो क्या किसी गलत छात्र को परीक्षा में बिठाना पेपर लीक से छोटा अपराध है? ऐसे कमज़ोर संवादों से फ़िल्म अपनी बात का वज़न खो देती है।
फ़िल्म के दूसरे हिस्से का पहले ही आकलन होना, निर्देशक सेन की उपदेशात्मक शैली और भले ही सच मगर फिर भी मेलोड्रामा से भरपूर फ़िल्म के अंतिम क्षण इस फ़िल्म को थोड़ा पीछे की ओर ले जाते हैं। पर कलाकारों का अभिनय फ़िल्म को अच्छे अंको से पास करती है।
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