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Review Hindi

उजड़ा चमन रिव्ह्यु – गंजेपन के मुद्दे पर बनी ठीक ठाक कॉमेडी फ़िल्म

Release Date: 01 Nov 2019 / Rated: U/A / 02hr 00min

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Cinestaan Rating

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Shriram Iyengar

हालांकि फ़िल्म का उद्देश्य अच्छा है, पर अभिषेक पाठक निर्देशित यह फ़िल्म हास्य की जगह भावुकता पर अधिक निर्भर है।

सनी सिंह निज्जर अभिनीत उजड़ा चमन प्रतिस्पर्धी बाला (२०१९) के एक सप्ताह पूर्व प्रदर्शित हुई है। यह फ़िल्म सुंदरता की कथित व्याख्या को समाज के सामने आइना बनाकर पेश करती है। सनी सिंह और मानवी गगरू अभिनीत इस फ़िल्म में उग्र व्यंग के नीचे दबी सामाजिक सच्चाई छुपी है।

चमन कोहली (सनी सिंह) एक ३० वर्षीय हिंदी का प्रोफ़ेसर है जो अपने कुंवारेपन से परेशान है। अरेंज्ड मैरेज के प्रयास में उसे हर रिश्ता मना कर रहा है और खुद के सीधेपन से ऊब कर उसने अब ऑनलाइन डेटिंग का ज़रिया अपनाया है।

चमन खुद सुंदरता को आम नज़रिये से देखता है जिस वजह से उसके जीवन में आ रहे प्यार को वो पहचान नहीं पाता। अप्सरा (मानवी गगरू) उसपर निस्वार्थ प्रेम करती है, पर वो उसे मना कर देता है क्योंकि उसकी नज़र में वो सुन्दर नहीं है।

कन्नड़ भाषा की सुपरहिट फ़िल्म ओंदु मोत्तेया कथे (२०१७) की इस अधिकृत रीमेक में निर्देशक अभिषेक पाठक ने ये कहानी दिल्ली की राजौरी गार्डन में स्थित की है। ऐसा करते हुए निर्देशक ने यहाँ पंजाबी लाऊड ह्यूमर और माहौल बनाये रखा है। हालांकि ये मज़ेदार भी है, पर कॉमेडी के लिए जो प्रसंग तैयार किये गए हैं वे कई बार असंवेदनशील लगते हैं। कई बार फ़िल्म अपने मुख्य मुद्दे से हटकर गैर ज़रूरी बातों पर केंद्रित हो जाती है। स्क्रिप्ट और छोटी और कसी हुई होती तो शायद ज़्यादा असरदार साबित हो सकती थी।

लेखक दानिश सिंह और निर्देशक पाठक ने पूर्वार्ध का बहुत सारा समय इसीमे खर्च कर दिया है के कैसे चमन को उसके इंस्टीट्यूट में और समाज में भी चिढ़ाया जाता है। ये करते हुए उन्होंने ठोस किरदारों के बजाय कुछ कार्टून जैसे चरित्र निर्माण किये हैं, जो उनकी पंचलाइन से ज़्यादा समय तक याद भी नहीं रहते। और फिर फ़िल्म भी उन्ही मुद्दों का सहारा लेती है जिन पर वो तंज कसना चाहती है।

अनजाने में फ़िल्म चमन के पिता, दोस्त और पड़ोसियों के ज़रिये कथित मर्दानगी को पुनः प्रस्थापित करती है। हालांकि इसमें कोई नयी बात नहीं, पर इसे और बेहतर तरीकेसे पेश किया जा सकता था।

कहानी में ऐसी कई जगहे हैं जहाँ किरदारों की प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक नहीं लगती। जैसे के उनके विग के बारे में कहा जा सकता है। एक असुरक्षित महसूस करनेवाले गंजे इंसान को विग पहनकर काम करने के लिए बेहद आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है, जब की सभी को उसके गंजेपन के बारे में पता है।

साथ ही, भले ही ज़्यादातर प्रोफेसर्स सरल होते हैं, पर किसी को अगर चिढ़ाया जाये और वो उस पर कोई एक्शन ना ले, तो ये समझ पाना मुश्किल हो जाता है। इस तरह के पलों की वजह से ये मनोरंजक फ़िल्म साधारण बन जाती है।

मानवी गगरू के अप्सरा किरदार के आने से फ़िल्म धीरे धीरे अपनी पकड़ बनाती है। अप्सरा का किरदार बाकि किरदारों से और अधिक अच्छा लिखा गया है, उसकी बारीकियों का ध्यान रखा गया है, और उसमे भावुकता भी भरी हुई है। फ़िल्म का उत्तरार्ध अधिक नाट्यमय है और यही सबसे अधिक प्रभाव भी छोड़ता है। एक ऐसी लड़की जिसको उसके वजन के लिए हमेशा चिढ़ाया गया है, अप्सरा चमन के प्रति स्वाभाविक रूप से अधिक सामंजस्य दर्शाती है। यहीं पर चमन का पक्षपाती स्वभाव प्रकट होता है।

सनी सिंह ने चमन कोहली के किरदार को सयंमित रूप से पेश किया है। चमन की घुटन और उसकी जलन दोनों को उन्होंने अच्छी तरह से प्रदर्शित किया है। पर उनके किरदार में होते बदलाव को दर्शाने में वे कम पड़ते हैं। दूसरी तरफ मानवी गगरू अपने किरदार की समझ और उसके अस्तित्व को सूझबूझ के साथ पेश करती हैं। उनकी अदाकारी में फ़िल्म का मूड भी हलका रहने में मदद मिलती है। कई बार वे फ़िल्म की सबसे अधिक सूझबूझ वाली किरदार साबित होती हैं।

अतुल कुमार और ग्रुषा कपूर पिता और माँ की भूमिका में अच्छे लगते हैं। खासकर कपूर अपने बेटे में कोई बुराई नहीं देखनेवाली प्यारी लेकिन लाऊड माँ की भूमिका में मनोरंजक लगती हैं। सौरभ शुक्ल, जिन्होंने बाला में भी एक किरदार निभाया है, यहाँ ज्योतिषी की छोटी भूमिका में नज़र आते हैं। उन्होंने भी अपने हिस्से के हास्य पल खूब वसूल किये हैं। शारिब हाश्मी मेहमान भूमिका में कहानी को आगे बढ़ाते हैं।

ऐश्वर्या सखूजा और करिश्मा शर्मा खूबसूरती की आम परिभाषा का प्रतिनिधित्व करती हैं। दोनों किरदार मज़ेदार हैं। पर उनकी कहानी उतनी आश्वासक नहीं लगती।

उजड़ा चमन उन दो हिंदी फ़िल्मों में से पहली है जो ऐसे विषय को सम्बोधित करती हैं जो वैसे तो काफ़ी आम है पर जिस पर मुश्किल से बोला जाता है। हॉलीवुड में जैक निकल्सन, यूल ब्रिनर और हेनरी फोंडा जैसे कलाकारोंने अपने गंजेपन को बड़े पर्दे पर बखूबी जताया है। हिंदी फ़िल्मों में मात्र हीरो की आम इमेज से हटने का प्रयास मुश्किल से हुआ है। अभिषेक पाठक की फ़िल्म इस विषय में एक नया प्रयास कहा जा सकता है। हालांकि इसे प्रभावी प्रयास नहीं कह सकते, पर ये प्रयास निश्चित ही सही दिशा में था।

 

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