Shriram Iyengar
मुम्बई, 10 Jan 2020 7:30 IST
इस ऐतिहासिक साहसिक फ़िल्म में अजय देवगन और सैफ अली ख़ाँ स्क्रीन पर छाये हुए हैं, पर फ़िल्म में सबसे अधिक प्रभावी हैं पार्श्वसंगीत, व्हिज्युअल इफेक्ट्स और एक्शन दृश्य जो फ़िल्म की तकनिकी वर्चस्व को सिद्ध करते हैं।
"तुम्हारे जज़्बात मिट्टी से जुड़े हैं, और मेरी अकल पानी से," उदयभान राठोड (सैफ अली ख़ाँ) तानाजी मालुसरे (अजय देवगन) को प्रताड़ित करते हुए कहता है। ये संवाद ओम राउत की भव्य ऐतिहासिक फ़िल्म के सार को सामने लाता है। यह फ़िल्म तानाजी मालुसरे के शौर्य की गाथा बताती है, जिसने अपने राजा के लिए कोंढाणा जैसे बेहद मुश्किल किले को जीतते हुए अपना बलिदान दिया।
फ़िल्म की शुरुवात छोटे तानाजी के साथ होती है, जहाँ तानाजी अपने पिता के शौर्य को देखता है, जो मुगलों से लड़ते हुए अपने प्राण गवा देते हैं। यह लड़ाई उस जमीन के लिए हुई थी, जिसे मुगलों ने १०० साल से अपने कब्ज़े में रखी थी। इस प्रस्तावना के बाद कहानी तुरंत शिवाजी महाराज के बढ़ते साम्राज्य की ओर मुड़ती है और भगवा ध्वज को फिर एक बार भारत पर लहराने का संघर्ष जारी होता है।
पर इस योजना में अड़चन आती है जब औरंगज़ेब अपने सेना के सर्वोच्च सरदार जय सिंह को दख्खन भेजते हैं और शिवाजी पुरंदर करार करने पर मजबूर होते हैं, जिसमे मुगलों को २३ किले वापस दिए जाते हैं। इनमें से एक है कोंढाणा, जो दख्खन साम्राज्य के बीचो बीच है।
इस अपमान का बदला लेना अनिवार्य है। जब शिवाजी आग्रा से बच कर निकलते हैं, वे कोंढाणा को फिर से हासिल करने की योजना बनाते हैं। उनके सबसे भरोसेमंद सरदार को बेटे की शादी में व्यस्त देख शिवाजी (शरद केलकर) खुद इस मोहिम पर जाने का मनसूबा बनाते हैं। पर तानाजी इस मोहिम को छोड़ना नहीं चाहता, और तय कर लेता है के पहले वो कोंढाणा की मोहिम जीत कर आएगा और फिर बेटे की शादी होगी।
ओम राउत और प्रकाश कापडिया ने एक ज़बरदस्त कहानी बुनी हैं जो गतिमान है और भावनात्मक बारीकियों के साथ पेश की गयी है। स्क्रीनप्ले में भी इन बारीकियों का ध्यान रखा गया है और कई किरदार, घटनाये और ऐंगल्स के साथ इसे रचा गया है। हर किसी को होशियारी से जगह दी गयी है और हर कोई लड़ाई के लिए तैनात है। गुप्त मार्ग, दीवारों की चढ़ाई और अंतिम युद्ध को काफ़ी कुशलता से रचा गया है और आपको ये पूरी तरह बांध कर रखने में कामयाब होते हैं।
राउत ने फ़िल्म की भावनात्मक आवश्यकता का भार तो सही उठाया है, पर किरदारों को प्रस्तुत करते समय कुछ कमिया देखि जा सकती हैं। ज़्यादातर महिला किरदार, खासकर काजोल और नेहा शर्मा द्वारा अभिनीत किरदार, महज़ एक आवरण की तरह हैं। उन्हें काफ़ी छोटी भूमिका हैं। एक तो अपने पति के बगल में खड़ी होती है, दूसरी खलनायक की पकड़ में फस जाती है।
साथ ही कुछ पुरुष किरदार अंत तक गायब हो जाते हैं। अजिंक्य देव पिसाल खजिनदार की भूमिका में हैं, जो मराठा साम्राज्य को काबिज़ करना चाहता है, पर मध्यांतर के बाद वो किरदार अचानक गायब हो जाता है।
पर शिवाजी महाराज की पहचान जिस युद्ध से होती है, उस गनिमी कावा युद्धनीति को बेहतरीन रूप से दर्शाया गया है। फ़िल्म में घोरपड की लोककथा का भी कुशलता से इस्तेमाल किया गया है, जिससे घोरपड की कहानी को एक नया आयाम मिला है। घोरपड किले की दिवार चढ़ती है और उसका सहारा लेकर मराठा सैनिक किले पर पहुंचते हैं, ऐसी लोककथा है।
पर ऐतिहासिक फ़िल्म की बात करें तो यह फ़िल्म शौर्य, पौरुष और नितांत राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत है। भगवा के बारबार उल्लेख के साथसाथ मुगलों की गुलामी में रह रहे मराठों को बगावत करने की चुनौती देने वाले देवगन के मोनोलॉग को चतुराई से शामिल किया गया है। और राजपुत शब्द को जानबूझ कर मूक रखा गया है।
कथासूत्र एकमात्र चीज़ नहीं जिससे किसी फ़िल्म का दर्जा ठहराया जा सके। तकनिकी रूप से ओम राउत ने एक बेहतरीन मनोरंजक फ़िल्म बनाई है जो इसके दृश्यों और एक्शन से कमाल का चित्र बनाती है। युद्ध के दृश्य अच्छे रचे गए हैं और स्लो-मोशन तकनीक का समझदारी के साथ उपयोग किया गया है। आम जनता के लिए कई ऐसे दृश्य हैं जहाँ तालियां और सीटियां आसानीसे बज सकती हैं।
केईको नाकाहारा के कैमरावर्क की फ़िल्म की बारीकियों से किये गए चित्रण के लिए निश्चित ही तारीफ होनी चाहिए। फाइट दृश्य ३०० (२००६) फ़िल्म की याद दिलाते हैं। रमज़ान बुलूत, टोल्गा डेगिरमेन, आरपी यादव के एक्शन दृश्यों की कोरिओग्राफी बेहद आकर्षक, घनघोर और कमाल की सहज हैं। दृश्यात्मकता में वो खूबसूरत नज़र आते हैं। प्रॉडक्शन डिझाइन भव्य और बेहतरीन है। चट्टान, किले की रचना और प्रॉप्स का बारीकीसे किया गया विचार इसे एक अलग अनुभव बना देता है। सचेत ठाकुर और परंपरा ठाकुर का ज़बरदस्त पार्श्वसंगीत भी इसे एक ऊंचाई प्रदान करता है। इस सबके साथ ललकार देनेवाली फ़िल्म है यह, जो भावनिक तौर पर बहुत ही ठोस है।
सैफ अली ख़ाँ का उदयभान राठोड कपटी है, पर वो पॉलिश्ड लगते हैं। उनका किरदार तानाजी के किरदार के लिए सर्वोत्तम दुश्मन बन कर उभर आता है। ख़ाँ इस किरदार को इतनी विकटता के साथ निभाते हैं जो हमारे लिए एक नया अनुभव बन जाता है। अप्रत्याशित और अजीब किरदारों को निभाने में ख़ाँ को शायद ज्यादा मज़ा आता है। एक्शन दृश्यों में वे एक अलग ऊर्जा लाते हैं और फ़िल्म में कुछ हास्य व्यंग के क्षण भी लाते हैं।
अजय देवगन ने तानाजी को एक ही ध्येय से प्रेरित सैनिक की तरह निभाया है। इस किरदार में वे आसानीसे फिट हो जाते हैं। राउत और कापडिया ने उन्हें कुछ ज़बरदस्त संवाद और एक्शन दिया है जो अंत में आता है। उनकी मराठी सिर्फ ठीकठाक है ये पता चलता है, पर इसके कम इस्तेमाल से फ़िल्म में उससे कोई बाधा नहीं आती।
शरद केलकर का विशेष उल्लेख होना चाहिए क्योंकि मर्यादित स्क्रीन टाइम के बावजूद उन्होंने शिवाजी महाराज के किरदार को सही रूप में निभाया है। ज़्यादातर अभिनेता राजा के किरदार को एक तरह की स्थूलता, पौरुष और अभिमान के साथ निभाते हैं, केलकर ने इसे एक इंसान के रूप में पेश किया है। उस दृश्य में जब उन्हें पता चलता है के अपने बेटे की शादी के बावजूद तानाजी कोंढाणा पाने के लिए जान पर खेलने जायेगा और एक अंतिम दृश्य, दोनों में वे काफ़ी अच्छे लगते हैं।
तानाजी – द अनसंग वॉरिअर एक योद्धा की शौर्यगाथा है। ये शायद पूरी तरह ऐतिहासिक सच ना हो, पर इसमें मनोरंजन, हीरोइज़्म के क्षण और एक बेहद क्रूर विलन है, जो इसे देखने पर मजबूर करते हैं।
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