Mayur Lookhar
Mumbai, 01 Mar 2019 8:00 IST
चम्बल की घाटियों में स्थित अभिषेक चौबे की ये डकैत फ़िल्म लालच, जाती भेद, बदला और प्रायश्चित की कहानी है।
अँधेरे में दागा हुआ बंदूक का निशाना शायद लक्ष्य गांठ भी ले, पर अगर उससे किसी मासूम की जान जाये तो उसका भारी मुआवज़ा भरना पड़ता है।
कुख्यात डकैत मान सिंह (मनोज बाजपेयी) और लखन (सुशांत सिंह राजपूत) को उनकी करनी पर पछतावा है पर उनके प्रायश्चित के लिए चंबल के बीहड़ों में शायद ही कोई जगह हो।
२०१९ में लेख़क सुदीप शर्मा और निर्देशक अभिषेक चौबे आपको चंबल की घाटियों के उस दौर में ले चलते हैं जब ये जगह सिर्फ़ डर और दहशत के लिए जानी जाती थी।
फ़िल्म के मुख्य पात्र काल्पनिक हैं और जैसे की ज़्यादातर फ़िल्मों की शुरुवात में लिखा जाता है इसका किसी भी असली डकैत से कोई ताल्लुक नहीं है। बाजपेयी के किरदार का नाम १९४०-५० के दशक और फिर बाद में १९७०-८० के दशक के कुख्यात डाकू के नाम से मेल रखता है पर यहीं सारी समानताएं समाप्त हो जाती हैं।
बाजपेयीने शेखर कपूर की फ़िल्म बैंडिट क़्वीन (१९९४) में १९७०-८० के दशक के डाकू मान सिंह का किरदार निभाया था। इस फ़िल्म में हम चंबल की एक समय की मशहूर डाकू फूलन देवी को फ़िल्म के अंत में देखते हैं।
सोनचिड़िया मध्य भारत के एक समय को परावर्तित करता है। गरीबी, जातपात के भेद, बदला और लालच के चलते कई लोगों ने बंदूक को अपना सहारा बना लिया था।
इन घाटियों में ज़्यादातर गैंग्ज़ जाती और समाज के आधार पर बनाई गयी थीं। सोनचिड़िया में गुज्जर खून के प्यासे ठाकुर गैंग का नेतृत्व मान सिंह कर रहा है। पर पुलिस अफ़सर वीरेंदर सिंह गुज्जर (आशुतोष राणा) स्पेशल टास्क फ़ोर्स लाकर इन डाकुओं को ढूंढने में लग जाता है। वीरेंदर सिंह की निजी दुश्मनी भी उसके इस कारवाही का कारण है।
जब ट्रेलर प्रदर्शित किया गया, तो भूमि पेडनेकर के किरदार की तुलना फूलन देवी से की गयी। पर इंदुमती तोमर की ये कहानी अपने आप में गंभीर है। १२ वर्ष के लड़के के साथ भागती इस औरत को जल्द ही इलाज की ज़रुरत है। लखन उसकी मदद करता है पर उस वजह से उसे गैंग के लोगों का विरोध सहन करना पड़ता है। अब उसके गैंग के लोग ही उसे ढूंढ रहे हैं।
निर्देशक अभिषेक चौबे विशाल भारद्वाज के कैंप से आये हैं, जहाँ उन्होंने ओंकारा (२००६) और कमीने (२००९) के स्क्रीनप्ले लिखे थे। वे खुद इश्क़िया (२०१०) फ़िल्म से निर्देशक बने और उसके बाद डेढ़ इश्क़िया (२०१४) और विवादित उड़ता पंजाब (२०१६) जैसी फ़िल्में बनाईं।
चौबे के किरदार सही या ग़लत नहीं हैं और उनका अपना अलग एक मज़ाकिया अंदाज़ है। पर सोनचिड़िया कोई डार्क कॉमेडी नहीं है। यह एक गंभीर फ़िल्म है। यहाँ की घटनात्मक परिस्थिति को देखते हुये चौबे ब्रैंड का हास्य व्यंग नज़र नहीं आता। शायद इसी लिए उन्होंने स्क्रीनप्ले और संवाद के लिए सुदीप शर्मा को चुना होगा।
दोनों ने फ़िल्म को १९७५-७७ के आपातकाल के समय में रखा है। फूलन देवी का डाकू के रूप में उदय १९७९ के बाद हुआ था। पर चौबे और शर्मा ने क्रिएटिव लिबर्टी लेते हुये उसे इमरजेंसी के दौर की डाकू दिखाया है। इस दौर में फ़िल्म को रखना से दो बातें आसान हो जाती हैं। इमरजेंसी हो या ना हो, डकैतों को सरे आम घूमने की आज़ादी थी और इमरजेंसी की वजह से पुलिस को डाकुओं का मनमर्ज़ी से ख़ात्मा करने की छूट भी आसानीसे मिल गयी।
फ़िल्मी दुनिया में शोले का गब्बर सिंह ये सबसे लोकप्रिय डाकू है। जैसे जैसे डाकुओं का ख़ात्मा या समर्पण होता गया, फ़िल्मों में भी उनकी कहानियां कम ही आने लगीं। तिग्मांशु धुलिया की पान सिंह तोमर (२०१२) ये एक खिलाड़ी की डाकू बनने की कहानी थी। शेखर कपूर की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नवाज़ी गयी फूलन देवी की बायोपिक बैंडिट क़्वीन (१९९४) भी एक दाहक और गंभीर फ़िल्म थी।
चौबे की सोनचिड़िया एक रोमांचक धुन गुनगुनाती है। चौबेने उस समय और जगह की भाषा और उसके लहज़े पर ज़रूर काम किया है, पर उसपर अनावश्यक ज़ोर नहीं दिया है, जिससे ज़्यादातर बॉलीवुड दर्शक उसे न समझ पाने का डर हो सकता था।
सुदीप शर्मा के स्क्रीनप्ले और संवाद बेहतरीन हैं। सोनचिड़िया का प्रॉडक्शन डिज़ाइन (रीता घोष) काफ़ी अच्छा है। अनुज राकेश धवन की सिनेमैटोग्राफी भी अच्छी है। हलकी रोशनी वाले दृश्य, खास कर मनोज बाजपेयी के दृश्य, बहुत अच्छे चित्रित किये गए हैं। नरेन चंदावरकर और बेनेडिक्ट टेलर का पार्श्वसंगीत और विशाल भारद्वाज का संगीत दृश्यात्मकता को और भी अधिक गहरा करते हैं।
तांत्रिक अंगो को अगर अलग भी रखें तो भी कलाकारों के जबरदस्त अभिनय से ये कहानी और भी आश्वासक लगती है। बाजपेयी के अलावा बाकि सभी कलाकार पहली बार डाकू का किरदार निभा रहे हैं। एक कुख्यात डकैत के रूप में राजपूत थोड़े कमज़ोर जरूर लगे हैं। पर एक दुर्घटना उनके अंतर्मन के दरवाज़े खोलती है। जहाँ एक तरफ गैंग के डाकू हमेशा ये बोलते रहते हैं के एक बाग़ी को उसके विश्वास पर चलना चाहिए, राजपूत उस पर सवाल करते हुये पूछते हैं के क्या किसी बाग़ी का कोई विश्वास भी होता है? राजपूत ने लखन के भावनिक संघर्ष को बखूबी निभाया है।
उत्तर भारत के छोटे गाँव की लड़की के रूप में भूमि पेडनेकर ने महारत हासिल कर ली है। दम लगा के हैशा (२०१५), टॉयलेट – एक प्रेम कथा (२०१७) और शुभ मंगल सावधान (२०१७) जैसी फ़िल्में इस बात का सबूत हैं। हालांकि इंदुमती इन सब किरदारों से अलग है। इससे पहले पेडनेकर ने इतने गहरे और रोमांचक किरदार को साकार नहीं किया है। इस लड़की पर आघात हुये हैं पर फिर भी बंदूक चलाने में वो माहिर है। ये भी बात गौरतलब है के जब डाकू उसकी ओर बंदूक ताने खड़े हैं तो वो पहले अपना पल्लू सर के ऊपर लेती है और फिर अपनी बंदूक तानती है। पेडनेकर अपने अभिनयसे सोनचिड़िया के प्रमुख महिला पात्र के रूप में अपनी छाप छोड़ती हैं।
आशुतोष राणा, बाजपेयी, रणवीर शोरे और महेश बलराज सभी अपने किरदार को बखूबी निभाते हैं। उभरते कलाकार जतिन सरना यहाँ अपना अलग पहलू दिखाते हैं जो हम ने सेक्रेड गेम्ज़ (२०१८) में नहीं देखा था। पेडनेकर के बच्चे का किरदार निभानेवाले बाल कलाकार का काम भी तारीफ के काबिल है।
मध्यांतर के बाद फ़िल्म थोड़ी धीमे होने लगती है, पर फिर वो वापस अपने ट्रैक पर आती है। चौबे की सोनचिड़िया उतनी दाहक फ़िल्म नहीं है। ये फ़िल्म ज़मीनी है और अपनी कहानीसे पूरी ईमानदार है। इस सोनचिड़िया की आवाज़ ज़रूर सुनीए।
Related topics
You might also like
Review Hindi
Jogi review: Diljit Dosanjh-starrer is more like a thriller revolving around 1984 riots
The Ali Abbas Zafar film takes you by surprise with the riot angle brought in much earlier in the...
Review Hindi
Matto Ki Saikil review: Prakash Jha leads this sentimental saga of socio-economic inequality
Written and directed by M Gani, the Hindi film is a patchy yet heartbreaking look at the bleak class...
Review Hindi
Jhini Bini Chadariya review: A moving lamentation for the holy city of Varanasi
Ritesh Sharma’s hard-hitting film lays bare the social fabric of the city and the growing...