Sonal Pandya
मुम्बई, 12 Aug 2021 15:38 IST
करगिल की जंग में दो खतरनाक मिशन की अगुवाई करनेवाले दिवंगत थलसेना अधिकारी पर बनी बायोपिक में सिद्धार्थ मल्होत्रा मुख्य भूमिका में हैं और विष्णु वर्धन ने इसे निर्देशित किया है। पर फ़िल्म मात्र ठीकठाक बायोपिक की श्रेणी तक सीमित रह गयी है।
पिछले कुछ समय से हर वर्ष पाँच, छह या उससे भी ज़्यादा बायोपिक फ़िल्में आ रही हैं। सभी एक ही ढांचे में मानो बन रही हैं, पहले जन्म या मूल शुरुवात को दिखाओ, फिर मुख्य विषय पर आओ और अंत में जीत। कुछ में हॅपी एंडिंग कर दीजिये, कुछ एक में नहीं।
धर्मा प्रॉडक्शन्स और काश एंटरटेनमेंट फ़िल्म द्वारा सह-निर्मित शेरशाह (२०२१) परमवीर चक्र से सम्मानित कैप्टन विक्रम बत्रा की कहानी है जिन्होंने दो सफल मिशन की अगुवाई की थी। ये दोनों मिशन १९९९ की करगिल जंग जीतने में महत्वपूर्ण साबित हुए थे। स्वतंत्रता दिवस के कुछ दिन पहले यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई है, निश्चितही ये संयोग नहीं है।
सिद्धार्थ मल्होत्रा बत्रा और उनके जुड़वा भाई विशाल की भूमिका में हैं। विक्रम बचपन से फौजी बनना चाहता है। कॉलेज की क्लासमेट डिम्पल चीमा (कियारा आडवाणी) का प्यार भी उसे उसके रास्ते से दूर नहीं कर सकता। १९९८ में उसकी पोस्टिंग कश्मीर में १३ जे एंड के रायफल्स में होती है, जहाँ वो टीम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाता है। जंग में अपनी जमीन पर फिर से कब्ज़ा करने के मिशन की अगुवाई करने का मौका भी विक्रम को मिलता है।
निर्देशक विष्णु वर्धन और लेखक संदीप श्रीवास्तव ने विक्रम के करगिल की जंग के शुरुवाती पोस्टिंग के साथ उसका प्यार और डिम्पल का उसकी मंगेतर बनना ये एक साथ बुना है। उत्तरार्ध में बंकर्स पर फिर से कब्ज़ा करने का मिशन है और साथ ही टोलोलिंग शिखर और अन्य चीज़ें हैं और भारत-पाकिस्तान की जंग के साथ विक्रम का वीरगति को प्राप्त होना, ऐसा पूरा तानाबाना बुना गया है।
स्टीफन रिचर और सुनील रॉड्रिग्ज के एक्शन ने इस खतरनाक मिशन को ज़िंदा किया है। जॉन स्टुअर्ट एड्यूरि का हॉलीवुड प्रभावित पार्श्वसंगीत सही समय पर जोश भर देता है, भारतीय तिरंगा लहराने का दृश्य हो या बत्रा का सब को ख़तम करने का जूनून, जो सिनेमैटोग्राफर कमलजीत नेगी ने बड़े ही सफाई से शूट किया है।
यह बायोपिक हमारे शहीद हीरो को एक ठीकठाक श्रद्धांजलि कही जा सकती है। पर यहाँ हमें बत्रा के केवल दो पहलू नजर आते हैं। पहला एक देशभक्त फौजी, दूसरा सच्चा प्यार करनेवाला लेकिन मेहबूब से दूर रहनेवाला मंगेतर। दो जुड़वा भाइयों के बीच का रिश्ता कैसा था ये यहाँ नज़र नहीं आता, हालाँकि फ़िल्म का कथासूत्र विशाल ही बताते हुए दर्शाया गया है। परिवार के बाकि लोगों के साथ विक्रम का रिश्ता मर्यादित रूप में दिखाया गया है।
धर्मा द्वारा निर्मित गुंजन सक्सेना – द करगिल गर्ल (२०२०) इससे अधिक संतुलित फ़िल्म थी। परिवार और कर्तव्य दोनों ढंग से पेश किए गए थे। बत्रा को मिले कोडनेम शेरशाह से फ़िल्म का नाम रखा गया है। फ़िल्म के अंत तक किसी चीज़ की कमी रह गयी है, ऐसा महसूस होते रहता है।
मल्होत्रा ने बत्रा के साहसी और वीरता गुण दर्शाए हैं पर हमें बस वही देखने मिलता है। जब जंग में उसका एक साथी मारा जाता है तो अंदर से बत्रा की निराशा झलकती है, पर फ़िल्म इस पर ज़्यादा समय नहीं गंवाती।
एक्शन दृश्यों में मल्होत्रा पूरी तरह जचते हैं, लेकिन भावुक क्षणों में कमज़ोर लगे हैं। आडवाणी के किरदार को स्क्रीन पर हालाँकि काफी समय मिला है, पर प्यार, प्रेमिका यहीं तक यह भूमिका सिमित है।
विक्रम और डिम्पल के दृश्य आम तौर पर जिसे फ़िल्मी कहा जा सकता है उस श्रेणी में आते हैं। बत्रा और आतंकवादियों के बीच चल रहे लड़ाई में भी बत्रा को फ़िल्मी संवाद दिए गए हैं। विष्णु वर्धन और कास्टिंग डिरेक्टर जोगी मलंग ने कलाकारों का चयन करते हुए मूल पात्रों के दिखावट और व्यक्तित्व का ध्यान रखा है, जो एन्ड क्रेडिट में पता चलता है, जिसके लिए उनकी प्रशंसा होनी चाहिए। साहिल वैद, शिव पंडित, राज अर्जुन, शताफ फिगर, अनिल चरणजीत और अन्य कलाकारों ने अच्छा काम किया है।
शुक्र है के यहाँ फौजी गाना गाते हुए नज़र नहीं आए। जिन्हें कैप्टन बत्रा की कहानी नहीं पता, उन्हें फ़िल्म से ज्ञात हो जाएगी। पर यह बायोपिक बत्रा के जीवन के क्षणों को किसी फेहरिस्त में तब्दील कर दिखाती है। उससे अच्छा शायद उनके जीवन को संक्षेप में दिखाकर उनके साहसी जीवन के महत्वपूर्ण अंगो पर ध्यान दिया जाता, तो ये बायोपिक अधिक संतुलित प्रभाव छोड़ पाती।
शेरशाह अमेज़न प्राइम विडिओ पर उपलब्ध है।
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