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Review Hindi

शकुंतला देवी रिव्ह्यु – इस विशेष भावनिक बायोपिक में अद्भुत प्रतिभा की गणितज्ञ को जीवित किया है विद्या बालन ने

Release Date: 31 Jul 2020 / 02hr 07min

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Sonal Pandya

अनु मेनन की इस फ़िल्म में असामान्य प्रतिभा की धनि शकुंतला देवी की जीवनी और उनकी प्यारी बेटी अनुपमा के साथ उनके रिश्ते को गहराई से दर्शाया गया है।

फ़िल्म शुरू होने से पूर्व हमें बताया जाता है के ये सच्ची कहानी शकुंतला देवी की बेटी अनुपमा बैनर्जी के नज़रिये से दर्शायी जा रही है। शकुंतला सिर्फ़ एक गणितज्ञ नहीं थीं, वे एक लेखिका, ज्योतिष्य शास्त्र की अभ्यासक एवं पूर्व राजनीतिज्ञ भी थीं। वे एक माँ भी थीं। मेनन की फ़िल्म में उनके क्लिष्ट रिश्ते की चिकित्सा की गयी है।

पाँच वर्ष की उम्र में शकुंतला वर्गमूल और गुणाकारों से इस कदर खेलती थीं, मानो उनके लिए वे बड़ी आसान सी बातें हों। उनके पिता की भूमिका प्रकाश बेलावड़ी ने निभाई है। पिता को लगता है पुत्री का ये गुण काफ़ी उपयुक्त है। वे उसे स्कूल और क्लब में ले जाते हैं, जहाँ गणित को लेकर सवाल-जवाब खेले जाते हैं। एक ही रात में ये छोटी सी लड़की अपने परिवार के लिए पैसे कमाने लगती है।

पर उसके कमाए पैसे उसकी बहन शारदा को नहीं बचा पाते, जिसका दुर्भाग्यवश मेडिकल सुविधा के अभाव से देहांत हो जाता है। शकुंतला अपनी माँ को उसे अस्पताल न ले जाने का दोष देती है और उसके बाद माँ से घृणा करने लगती है। बड़ी शकुंतला (विद्या बालन) खुद कमाती है और स्वतंत्र बन जाती है। १९५५ में एक दिन अपने प्रेमी (नील भूपालम, मेहमान भूमिका में) से हुई अनबन में उस पर गोली तक दाग देती है और अचानक लन्दन, इंग्लैंड, चली जाती है।

लन्दन में शुरुवाती दौर में उसके गणित के शोज़ के लिए उसे विरोध होता है, पर रॉयल मैथेमैटिकल सोसायटी में उसके प्रदर्शन के बाद उसकी हाविएर (लुका कैलवनी) से मित्रता हो जाती है। ये स्पैनिश दोस्त शकुंतला को कुछ शिक्षा के साथ मार्गदर्शन करता है और बीबीसी पर कंप्यूटर को हराने के बाद ये प्रतिभाशाली गणितज्ञ दुनियाभर में अपने गणित के शोज़ लेकर घूमती है।

शकुंतला की इस सफलता को दर्शाने के बाद फ़िल्म फिर से अपने संघर्ष के मुद्दे पर लौटती है। शकुंतला की बेटी अनुपमा (सान्या मल्होत्रा) ने उस पर क्रिमिनल केस दर्ज कराई है। शकुंतला ने तलाकशुदा आईएएस अफसर पारितोष बैनर्जी (जीशु सेनगुप्ता) से प्रेम विवाह किया था। शकुंतला अपने माँ-बाप से तो जीवन में काफ़ी जल्दी ही अलग हो चुकी थी, पर अपनी बेटी के लिए वो सबसे अच्छी माँ बनना चाहती थी।

पर जैसे ही माँ की ज़िम्मेदारियों में वो उलझती जाती है, वो अपने पहले की ज़िंदगी को अधिक याद करने लगती है और वो सफलता पूर्वक फिरसे अपने पुराने काम में लौट आती है। जब पारितोष उसे बताता है के उसने अपनी बेटी की मुँह से निकला पहला शब्द सुनने का मौका गवाँ दिया है तब शकुंतला को अपने त्याग का अहसास होता है, जिसमे अनुपमा कही नहीं है। विद्या ने इस दृश्य को बेहतरीन रूप से निभाया है, जिसमे उन्होंने सदमे और दुःख के भावों को सहज रूपांतरित किया है।

यहाँ उसे पारितोष से ज़्यादा अनु की ज़रूरत है। इसी लिए जब पारितोष उसके साथ दुनियाभर आने से इन्कार करता है, तो शकुंतला अनु को अपने साथ ले जाती है। जैसे के उसके पिता उसे गणित के शोज़ के लिए बचपन में ले जाते थे।

अनु अपने पिता को याद करती रहती है, वहीं शकुंतला उसे जताती रहती है के उसकी ज़िंदगी कितनी अनूठी है। गणित के साथ अब शकुंतला ज्योतिषशात्र और साहित्य के क्षेत्र में भी काफ़ी सफल हो रही है। राजनीती ही ऐसा एक मात्र क्षेत्र है जहाँ उन्हें सफलता हासिल नहीं हुई, पर इसके बारे में अधिक गहराई से फ़िल्म में बताया नहीं गया है।

फ़िल्म का मुख्य अहसास माँ और बेटी के रिश्ते का है। जैसे अनुपमा बड़ी होने लगती है, वह खुद की ख्वाहिशें और आज़ादी चाहने लगती है, जो के उसकी माँ के जीवन से अलग हैं और इसी बीच शकुंतला उन दोनों के रिश्ते को सुधारना चाहती है। मेनन की फ़िल्म का उत्तरार्ध में हमें मशहूर शकुंतला का निजी रूप और उसके जीवन के पश्चाताप के दौर के बारे में देखने मिलता है।

अपने आस-पास के लोगों में सबसे तेज़ शकुंतला देवी को विद्या बालन ने सहज अंदाज़ देते हुए बखूबी निभाया है। भारत में बायोपिक्स में सामान्यतः मुख्य पात्र के अच्छे गुणों को दर्शाया जाता है और दुर्गुण छुपाए जाते हैं, पर मेनन ने नयनिका महतानी के साथ शकुंतला के अंतर्द्वंद और पूर्वग्रह को भी अधोरेखित किया है। अपने बेटी की अति-संवेदनशील माँ के रूप में शकुंतला अनु के लिए निर्णय लेने लगती है और जब अनु अजय (अमित सध) के साथ शादी कर बंगलौर में बसना चाहती है, वो भड़क उठती है।

फ़िल्म में शकुंतला के जीवन की छोटी छोटी बातों को खूबी से दर्शाया गया है, उसके ख़ुशी के पलों के साथ उसकी कॉमा की नापसंदगी भी यहाँ देखने मिलती है। ऐसा भी अंदेशा दिया गया है के शकुंतला देवी की कहानी रंजक बनाने के लिए उनके जीवन के कुछ तथ्यों को नाट्यमयता दी गयी है।

विद्याने शकुंतला देवी को अनोखे अंदाज़ में पेश किया है। वह हाज़िरजवाबी है, ज़िंदादिल है और साथ ही उतनी ही आवेगशील और भावुक भी। सभागृह में खड़ी एकमेव महिला और शायद सभी गोरों से अलग, विद्या अपना जवाब देते ही तुरंत पूछती हैं, "क्या मैंने सही कहा?" ये दृश्य सम्मोहित कर जाता है। अपने किरदार के जीवन के अलग अलग स्तर पर उन्होंने अपने लहजे को भी उतने ही प्रभावी रूप से बदला है, जो के काबिले तारीफ है।  

सान्या मल्होत्रा गरम मिज़ाजी बेटी के किरदार में उतनी ही प्रभावी हैं। विद्या और सान्या की दिल जमाई का एक बेहतरीन दृश्य अंत की तरफ आता है, जिसमे दोनों के रिश्ते की गहराई नज़र आती है। सध और सेनगुप्ता ने दोनों स्त्री कलाकारों को बेहतरीन सहयोग दिया है, पर ये पूरी फ़िल्म इन दो महिला कलाकार और उनके किरदारों के नाज़ुक रिश्ते पर ही टिकी है।

एक महिला निर्देशक की महिला केंद्रित फ़िल्म देख कर भी अच्छा लगता है। मेनन और उनकी सह-लेखिका महतानी के साथ इशिता मोइत्रा ने फ़िल्म के संवाद लिखे हैं, कीको नाकाहारा ने इसे छायांकित किया है और अंतरा लाहिरी ने फ़िल्म का संकलन किया है। कई और विभागों में भी महिला ही नेतृत्व करती दिखती हैं। फ़िल्म के संगीत में भी गायकों से अधिक गायिका नज़र आती हैं। इससे हम किरदारों को कैसे देखते हैं, इसका एक नया नज़रिया भी यहाँ देखने मिला।  

एक जगह पारितोष कहता है, "शकुंतला को प्यार करना याने उसे उसकी तरह रहने देना।" यह आत्मनिर्भर अनोखी गणितज्ञ दूसरी किसी तरह से जी भी नहीं सकती थीं।

शकुंतला देवी फ़िल्म आप ऐमज़ॉन प्राइम विडिओ पर देख सकते हैं।

 

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