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Review Hindi

रोमिओ अकबर वॉल्टर रिव्ह्यु – स्क्रिप्ट सटीक होती तो जॉन एब्रहम का ये विस्तृत मिशन सफल हो पाता

Release Date: 05 Apr 2019 / Rated: U/A

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Cinestaan Rating

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Shriram Iyengar

रॉबी ग्रेवाल की यह फ़िल्म सटीकता और रोमांच के अभाव से आकर्षित नहीं करती।

जॉन एब्रहम को उनके स्क्रिप्ट्स के चुनाव के लिए तो दाद देनी चाहिए। मद्रास कैफ़े (२०१३) के बाद उन्होंने कुछ अच्छी स्क्रिप्ट्स चुने हैं। परमाणु – द स्टोरी ऑफ़ पोखरण (२०१८) और सत्यमेव जयते (२०१८) के बाद रॉबी ग्रेवाल की रोमिओ अकबर वॉल्टर के चुनाव के लिए उनकी प्रशंसा करनी होगी।

फ़िल्म में रोचकता है और युद्ध जीतने के लिए किसी देश को जो भी जानकारी हासिल करना आवश्यक है, उसे बड़ी सूक्ष्मता से यहाँ बुना गया है। दुर्भाग्यवश, फ़िल्म में जिस नाट्यमयता और रोमांच की आवश्यकता थी, वो इस फ़िल्म में कमज़ोर पड़ती है।

रोमिओ अली (जॉन एब्रहम) बैंक का साधारण कर्मचारी है। रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के प्रमुख श्रीकांत राय (जैकी श्रॉफ) रोमिओ को एक मिशन के लिए नियुक्त करते हैं। १९७१ के बांग्लादेश स्वतंत्रता युद्ध के समय पर ये मिशन दिया जाता है जिसमे रोमिओ को पाकिस्तान जाकर गुप्त जानकारी हासिल करने की ज़िम्मेदारी दी गई है।

रोमिओ अब अकबर बन जाता है, पर बहुत जल्द उसे पता चलता है के वो इस बड़े खेल में महज एक प्यादा है। हथियारों का डीलर इसाक अफ्रीदी (अनिल जॉर्ज) पाकिस्तानी आर्मी के लिए आतंकी गतिविधियां करता है। अकबर बना रोमिओ धीरे धीरे उसका करीबी बनते जाता है, तभी आय एस आय कमांडर ख़ाँ (सिकंदर खेर) उसके पीछे लग जाता है। दोनों तरफ की जासूसी करते करते रोमिओ और अकबर इन दो पहचानों के बीच रोमिओ उलझते जाता है।

रॉबी ग्रेवाल की कहानी में काफ़ी सूक्ष्म चीज़ों का ध्यान रखा गया है तथा ये भी बात सामने आती है के किसी भी युद्ध के लिए सूक्ष्म जानकारी का होना कितना आवश्यक है। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय गुप्तचर विभाग की कुछ असफलता के चलते यह मुद्दा और भी अधिक गंभीरता से सामने आता है।

ग्रेवाल की कहानी में मुखबिर (जॉन) और उसे नियुक्त करनेवाले (श्रॉफ) के बीच के संबंध को गहराई से दर्शाया गया है। कठपुतलियों के इस खेल के सारे धागे कौन कैसे खींचता है, यही इस कहानी की रोचकता है।

फ़िल्म का स्क्रीनप्ले मगर इस उत्सुकता को बढ़ाने में नाकाम हुआ है। इस तरह के किसी थ्रिलर मिशन में जिस तनाव और गूढता की आवश्यकता होती है उसका अभाव यहाँ नज़र आता है।

एक बार फ़िल्म की पार्श्वभूमि को स्पष्ट किया गया हो, तो किरदारों की विशेषताएं तथा गूढता को रचा जा सकता है। फ़िल्म का पहला भाग दूसरे से अधिक मज़ेदार है। संवादों के माध्यम से जो बातें सीधी पहुंचाई गई हैं, वो भी असरदार नहीं ठहरती। रोमिओ / अकबर का पाकिस्तानी एजेंट बन जाना ये बात हजम नहीं होती। ऐसी कई छोटी छोटी बाते हैं जिससे फ़िल्म के कुछ अच्छे पलों का प्रभाव कम हो जाता है।

२ घंटे २० मिनिट की कालावधि ने फ़िल्म की गति और लक्ष को नियंत्रित रखने में मदद नही की है। कभी अकबर तो कभी राय या ख़ाँ के नज़रिये से फ़िल्म चलती है, जिससे किसी प्रकार के तनाव को ठीक से पनपने का मौका नहीं मिलता। किरदारों को भी गहराई से नहीं लिखा गया है। रोमिओ और राय के किरदारों के बीच कोई भावनात्मक संबंध भी नहीं जुड़ते।

जॉन अपने अविचलित किरदार को ज़िम्मेदारी से निभाते हैं। धीरे धीरे जॉन ऐसे किरदारों को और भी अधिक संजीदगी से निभाते हुए नज़र आ रहे हैं। पर धीरे धीरे उनका किरदार भी बोरिंग होते जाता है, क्यूंकि वो सिर्फ एक ही दिशा में काम कर रहा दिखता है। जैकी श्रॉफ के लिए ऐसे किरदार आम बात हैं। वे अपने अनुभव से इस बड़ी पोस्ट पर बैठे सॉफिस्टिकेटेड हैंडलर की भूमिका को सहजता से निभाते हैं।

मात्र फ़िल्म में अगर कोई आपको चकित करता है तो वो हैं सिकंदर खेर। पंजाबी लहज़े में वे इस किरदार को निभाते हैं। उनके किरदार का काम है के वो इस जासूस या मुखबिर को जड़ से हटा दे। खेर के दृश्य काफ़ी उत्साह भरे हैं तथा जॉन के साथ उनके दृश्य अधिक परिणामकारक हुए हैं। रघुवीर यादव भी अपनी छोटी सी भूमिका में अपनी छाप छोड़ जाते हैं।

फ़िल्म का दृश्यांकन काफ़ी अच्छा और स्टाइलाइज़्ड है। कई सारे क्लोज़ शॉट्स से किरदारों के हावभावों को नज़रबंद किया गया है। पर ये बात हमेशा काम कर जाएगी ऐसा नहीं है, क्यूंकि फ़िल्म के शुरुवाती पलों में जॉन के विग की कमियां भी उसमे साफ़ दिखती है।

इन कमियों के बावजूद रोमिओ अकबर वॉल्टर स्पाय ड्रामा रचने का एक अच्छा प्रयास है। सूक्ष्म निरीक्षण तथा अच्छे रिसर्च के साथ बनाई गई इस फ़िल्म में कई सारे ऐसे भी पल हैं जो इसके परिणाम को बढ़ाते हैं। सिर्फ़ तनाव और अधिक सटीकता से फ़िल्म को बनाया गया होता तो शायद ये मिशन अच्छी सफलता हासिल कर पाता।

 

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