Keyur Seta
मुम्बई, 13 May 2021 18:18 IST
प्रभुदेवा की इस नीरस फ़िल्म में अयनंका बोस की सिनेमैटोग्राफी ही एक मात्र अच्छी चीज़ लग रही है।
पिछले वर्ष सलमान खाँ ने वादा किया था के वे राधे – यूअर मोस्ट वॉन्टेड भाई को ईद पर प्रदर्शित करेंगे। कोविड-१९ के दूसरे चरण के बावजूद उन्होंने इस एक्शन थ्रिलर फ़िल्म को ऑनलाइन प्रदर्शित करते हुए अपना वादा पूरा किया। फ़िल्म के शुरुवात में ही वे दर्शकों को ईद मुबारक करते हुए चौथी दीवार वाली संकल्पना को तोड़ देते हैं। पर उन्होंने और फ़िल्म निर्देशकने अगर फ़िल्म के कंटेंट पर भी उतनी ही मेहनत ली होती तो ज़्यादा अच्छा होता।
वर्षों पहले, ऐसी हीरो केंद्रित फ़िल्में कई तादात में बनती थी। राधे दक्षिण कोरिया की द ऑउटलॉज़ (२०१७) की अधिकृत रीमेक है। फ़िल्म में मुम्बई के हज़ारों कॉलेज के छात्र और स्कूल के बच्चें ड्रग्ज़ के शिकार हो चुके हैं, जिसका युवाओं पर बेहद बुरा असर हो रहा है।
स्थिति नियंत्रण से बाहर हो चुकी है और मुम्बई पुलिस को मजबूरन निलंबित इन्स्पेक्टर राधे (खाँ) को वापस बुलाना पड़ता है, ताकि दोषियों को पकड़ा जाए। राधे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट है और उसका रवैया कानून के दायरे के बाहर जाकर काम करने का है। इस बार उसके सामने सबसे बड़ा दुश्मन बन कर राणा (रणदीप हूडा) खड़ा है, जो ड्रग्ज़ माफिया का बेताज बादशाह है।
पिछले वर्ष, नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने मुम्बई में ड्रग्ज़ के इस्तेमाल और उसे रखने के विरोध में बड़ा अभियान चलाया था। मगर जिस तरह से ये पूरा मामला घटा उसे देख ये फ़िल्म इस तफ्दीश के अधिकारियों का मज़ाक उड़ाने के लिए बनाई गयी हो ऐसा लगता है।
तो,राधे दगडू (प्रवीण तरडे) और दिलावर (सुधांशु पांडे) इन दो अंडरवर्ल्ड के गुटों को हाथ मिलाने और ड्रग्ज़ को मुम्बई से दूर करने में उसकी मदद करने के लिए मजबूर करता है। दगडू भगवा झंडाधारी हिंदू है, वहीं दिलावर कट्टर मुस्लिम। सामाजिक एकता को बढ़ावा देने का ये खाँ का तरीका है। क्या ज़बरदस्त योजना है ! पर राधे ऐसा क्यों समझता है के दो गैंगस्टर्स आसानीसे उसकी योजना का साथ देंगे और ड्रग्ज़ के खिलाफ लड़ेंगे, खास कर तब जब की शहर में नशीलें पदार्थों का अमल तेजी से बढ़ रहा है?
राधे सिर्फ १०८ मिनिट लम्बी फ़िल्म है। पर फिर भी ये फ़िल्म ज़्यादा लम्बी लगती है क्योंकि इसकी असल कहानी आधे में ही दम तोड़ देती है। उसके बाद राणा को पकड़ने की जद्दोजहद दिखती है, जो के बेहद मूर्खतापूर्ण दिखाई गयी है।
राणा के काम का तरीका हास्यास्पद है। वो लोगों को दिन दहाड़े मारता है, लेकिन बिना किसी डर के, कभी कभी पैदल भी वो शहर में घूमता है। वो अपना व्यवसाय एक बंद पड़े मिल से चला रहा है, और आश्चर्य ये है के इस बारे में अधिकारियों को कभी कोई खबर नहीं मिलती।
मगर इसके बावजूद हूडा सारे कलाकारों में सर्वोत्तम लगते हैं, भले ही उनका किरदार एकांगी है। खाँ ने ज़्यादा मेहनत लेने का कष्ट नहीं लिया है, फिर वे चाहे बोल रहे हों, मारधाड़ कर रहे हों या डान्स ही क्यों न हो। उनमें किसी भी चीज़ के लिए दिलचस्पी नज़र नहीं आती, जैसे के इससे पहले हम बुरी तरह पीटी हुई फ़िल्म रेस ३ (२०१८) में देख चुके हैं।
इस तरह की फ़िल्म में नायिका की भूमिका ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं रहती। पर ऐसी फ़िल्मों के सामान्य दर्जे के हिसाब से भी दिशा पाटनी का किरदार मूर्ख दिखाया गया है। जैसे के राधे उसे झूठ कहता है के वो मॉडल है। बाद में जब उसके धोखे के बारे में पता चलता है, तो वो कोई प्रतिक्रिया नहीं देती। वो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार कर लेती है। उन्हें फ़िल्म में जैकी श्रॉफ की छोटी बहन दिखाया गया है। पर वो खाँ की छोटी बहन लगती है।
श्रॉफ खाँ के बिलकुल विपरीत यहाँ बहुत ज़्यादा परिश्रम लेते हुए दिखते हैं। एक दृश्य में श्रॉफ पाटनी की ड्रेस पहनते हैं, जो काफी विचित्र दिखता है। दर्शन ज़रीवाला और गोविन्द नामदेव जैसे अभिनेताओं को ज़ाया किया गया है। मराठी फ़िल्मों के जानेमाने चेहरे तरडे और सिद्धार्थ जाधव को बस चिल्लाने के लिए रखा गया है।
राधे में वीएफएक्स भी काफी ख़राब दर्ज़े का है। अगर आप फ़िल्म का हेलीकॉप्टर वाला दृश्य देखेंगे तो समझ जाएंगे। फ़िल्म में अगर कोई चीज़ सराहनीय है तो वो है अयनंका बोस की सिनेमैटोग्राफी, जो के संयोगवश रेस ३ में भी सिनेमैटोग्राफर थे और वहाँ भी वही एक मात्र अच्छी चीज़ थी।
आप पिछले वर्ष टेलीविजन पर चले ड्रग्ज़ के समाचारों को यूट्यूब पर फिर से देखेंगे तो ज़्यादा अच्छा हो सकता है। वो कभी भी राधे से कही गुना मनोरंजक होगा।
राधे झी प्लेक्स और झी ५ पर उपलब्ध है।
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