Shriram Iyengar
मुम्बई, 15 Mar 2019 12:20 IST
रितेश बत्रा की इस संवेदनशील फ़िल्म में सान्या मल्होत्रा गज़ब फॉर्म में नज़र आती हैं, पर बारीकियों की कमी की वजह से द लंचबॉक्स जैसा असर छोड़ने में फ़िल्म कामयाब नहीं होती।
'तुमने मुझे देखा, होकर मेहरबाँ' इस गाने की पंक्तियाँ रितेश बत्रा की इस फ़िल्म में याद आती रहती हैं। ये कहानी है दो अपने आप में खोये हुए इंसानो की, जो किसी हमसफ़र की तलाश में हैं।
इसी थीम को बत्रा ने द लंचबॉक्स (२०१३) में भी इस्तेमाल किया था। मात्र यहाँ फोटोग्राफ में कहानी से ज़्यादा इसके अनोखेपन पर ध्यान दिया गया है। कहानी के सूत्र की कमियों के बावजूद सान्या मल्होत्रा का नियंत्रित तथा भावगर्भित अभिनय आपका ध्यान आकर्षित करता है और उनकी क्षमता को सिद्ध करता है।
ये कहानी भिन्न जाती-वर्ग के लोगो से भरी मुंबई के उन दो इंसानो की है जो एक दूसरे से काफ़ी अलग होकर भी दोस्ती और साथ के अनोखे बंधन से बंधते हैं। रफ़ीक (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) गेटवे ऑफ़ इंडिया पर खड़े रहने वाले फोटोग्राफर्स में से एक है, तो मिलोनी (सान्या मल्होत्रा) एक चार्टर्ड अकौन्टन्सी की छात्रा है जो अपनी परीक्षा की तैयारी कर रही है।
शादी के लिए नानी (फारुख ज़फर) के बढ़ते दबाव के कारण रफ़ीक मिलोनी का खींचा हुआ एक फोटो नानी को भेज देता है, जिसमे वो मिलोनी को अपनी गर्लफ्रेंड नूरी बताता है।
ये सुनकर नानी खुश होकर मुंबई चली आती है, जिससे रफ़ीक की मुश्किलें बढ़ती हैं। वो मिलोनी को विनती करता है के वो कुछ देर के लिए उसकी गर्लफ्रेंड बनने का नाटक करे। अपने संकुचित परिवार से थोड़ा अलग होने के मौके को देख कर मिलोनी भी मान जाती है। इस झूठ के सफर में दोनों के बीच अच्छी दोस्ती होती है।
द लंचबॉक्स की तरह यहाँ भी शहर में अनजाने में बनते अनकहे रिश्तों की कहानी है। यहाँ कुल्फी और कैम्पा कोला की यादें ताज़ा करने वाले क्षण भी हैं जो शायद आजके स्मार्टफोन और सेल्फीज़ के ज़माने में अटपटा लगे।
धीरे धीरे बत्रा इस शहर के अंदर बसा एक और शहर ढूंढते हैं जहाँ टेक्नोलॉजी इंसान पर हावी नहीं हुई है। झोपडे में रहते एकाकी लोग और पुराने हिंदी गानों का साथ इस थीम के भाव को और गहरा करते हैं।
फोटोग्राफ में कहानी का स्वाभाविक बहाव नज़र नहीं आता जो द लंचबॉक्स की खासियत थी। कुछ विचित्र कट्स और नॉन-लिनिअर कथा सूत्र से इसे अनोखापन देने की कोशिश की गयी है, जो शायद जरुरी नहीं था। कुछ बेहतरीन दृश्यों के बावजूद इसका विचित कथा सूत्र फ़िल्म के अनुभव में बाधा उत्पन्न करता है। मिलोनी और रफ़ीक के बीच के स्वाभाविक अंतर को भी नानी का न समझना, स्त्रियों पर आये दिन बढ़ते लैंगिक शोषण के केसेस के बावजूद मिलोनी का रफ़ीक की बात पर राज़ी हो जाना, ये बातें हज़म नहीं होती।
हमेशा दबाव में रहने वाली मिलोनी की भूमिका में सान्या मल्होत्रा ने बेहतरीन अभिनय किया है। वे हर भूमिका के साथ और भी बेहतर होती जा रही हैं। अपने निर्णय खुद लेने की क्षमता न रखने वाली लड़की के पात्र को उन्होंने सूझबुझ के साथ निभाया है। रफ़ीक के रूप में उसे आज़ादी और दोस्ती दोनों मिलते हैं, जो उसके परिवार के साथ उसे नहीं मिलते।
मल्होत्रा आपको पूर्ण रूप से मिलोनी का असली चेहरा कभी नहीं दिखाती हैं, जो उसके उदासी भरे चेहरे के पीछे छिपा हुआ है। जिस मज़ेदार तरीके से वो रफ़ीक के साथ अपनी पहली मुलाकात की कहानी बताती है, उससे वो किस दबाव में जी रही है इस बात का खुलासा करने में भी मल्होत्रा कामयाब रही हैं।
मात्र नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी का किरदार लिखावट में कमजोर है। संवादों में वो मज़ा नहीं है। संवाद वास्तविक होकर भी असरदार नहीं हैं।
फ़िल्म में जिम सर्भ और सचिन खेडेकर के किरदार कुछ नाट्य उत्पन्न करते हैं। गीतांजली कुलकर्णी अपने बेहतरीन अदाकारी से मिलोनी के घर के वर्ग भेद को उजागर करती हैं। मिलोनी की वो एक अकेली हमराज़ है। विजय राज भी फ़िल्म में नज़र आते हैं, मगर वे कहानी में कुछ नहीं जोड़ते।
बत्रा की यह फ़िल्म हृदयस्पर्शी अवश्य है। तीसरी मंज़िल के गाने के अनुरूप यह फ़िल्म अकेलेपन के एहसास पर बोलती है और शहर के क्रूरता को जिस भावनात्मक सहारे की आवश्यकता है उसे भी दर्शाती है। अगर फ़िल्म को और संजीदगी से बनाया गया होता तो शायद ये फ़िल्म बेहतरीन बनती।
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