Blessy Chettiar
मुम्बई, 29 Mar 2019 9:00 IST
बेहतरीन फ़िल्मांकन और सटीक एडिटिंग यही वजह हैं जिससे के आप इस फ़िल्म को देख पाते हैं। हालांकि ज़हीर इक़बाल और प्रनूतन बहल की इस पहली फ़िल्म में पुराने किस्म के रोमांस की एक बेहतर कहानी पेश करने की पूरी संभावना थी।
श्रीनगर के खूबसूरत दाल झील में कश्मीर की आत्मा बसती है। पानी पर चलता शिकारा, चिनार के पत्तो में छुपती ज़मीन, बर्फों से घिरे पर्वत, सब्जी मंडी के ड्रोन शॉट्स और झील पर खड़ा पुराना स्कूल ये कुछ ऐसे मंज़र हैं जिन्हें मनोज कुमार खातोई के कैमरा ने नोटबुक फ़िल्म में खूबसूरती से उतारे हैं।
पर खेदजनक बात ये है के बेहतरीन फ़िल्मांकन और सटीक एडिटिंग ही फ़िल्म को बेहतर नहीं बनाते। हालांकि ज़हीर इक़बाल और प्रनूतन बहल की इस पहली फ़िल्म में पुराने तरह के रोमांस की एक बेहतर कहानी पेश करने की पूरी संभावना थी।
कश्मीर खूबसूरती और तनाव के विरोधाभास में जी रहा है। पर दराब फ़ारूकी का स्क्रीनप्ले तथा शारिब हाश्मी और पायल आशर के संवाद कहानी पर केंद्रित रहते हैं, और तनावों को सिर्फ सकारात्मक संदेश देने के लिए इस्तेमाल करते हैं।
कश्मीरी पंडित और आतंकवाद के मुद्दों को समझदारी के साथ दर्शाया गया है, पर उतना काफ़ी नहीं है। कुछ जगहों पर हास्य व्यंग के प्रसंग भी हैं, पर उन दृश्यों से कुछ खास उभरकर नहीं आता। इसकी एक प्रमुख वजह है मुख्य जोड़ी की सामान्य अदाकारी।
जब पूर्व फौजी कबीर (ज़हीर) को पता चलता है के उसके पिता ने शुरू किए हुए एक छोटेसे हाउसबोट पर खड़े स्कूल में टीचर की आवश्यकता है, तो वो हिचकिचाहट में ही वहाँ जाने के लिए तैयार होता है। दुनिया से अलग थलग बसे इस स्कूल में छात्र भी नहीं हैं। कबीर वहाँ के लोगों को लेकर स्कूल में बच्चों को लाने के लिए निकलता है। कबीर को पता नहीं के बच्चों के साथ किस तरह से बर्ताव किया जाए, पर धीरे धीरे बच्चें और कबीर एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं।
जब कबीर को पुरानी टीचर फिरदौस (प्रनूतन) की डायरी मिलती है, वो फिरदौस के अनुभवों से धीरे धीरे बच्चों से कैसे पेश आना चाहिए इस बारे में सीखते जाता है। हर पन्ने पर फिरदौस अपना अनुभव लिखती है और अंत में 'आय एम इनफ' और 'थैंक यु यूनिवर्स' लिखती है और हर पन्ने के साथ ही कबीर फिरदौस को पसंद करने लगता है। वो कैसी दिखती है ये जाने बगैर और सिर्फ़ एक पोल स्टार टैटू के क्लू के साथ वो फिरदौस को ढूंढने शहर निकलता है और निराश होकर लौटता है।
इस डायरी के ज़रिये हम पहले फिरदौस के बारे में जानते हैं और बाद में कबीर के बीते हुए कल के बारे में। फ़िल्म के दृश्य और कहानी (२०१४ की थाई फ़िल्म टीचर्स डायरी से रूपांतरित) निर्देशक नितिन कक्कर के प्रामाणिक उद्देश्य और प्रयत्नों को दर्शाते हैं, पर फिर भी कहानी में कुछ कमी ज़रूर महसूस होती रहती है। फ़िल्म की अवधी मात्र २ घंटे है, मगर फिर भी फ़िल्म शिकारा से भी धीमी गति से चलती है।
मुख्य जोड़ी की यह पहली फ़िल्म है और पहली रोमैंटिक 'बॉलीवुड' फ़िल्म में नकारात्मक एंडिंग होना शायद उनके लिए ज़्यादती हो सकती थी। हालांकि दोनों को जोड़ी के रूप में कास्ट किया गया है, पर दोनों के एकत्रित दृश्य आखरी कुछ मिनिटों में ही देखने मिलते हैं। इतने कम समय में दोनों की केमिस्ट्री कैसी है इस बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता।
बच्चों के हथियार रखने की बात को सही या गलत न बताते हुए स्क्रीनप्ले में चतुराई से बुना गया है। दोनों टीचर्स को बच्चों से लगाव है, दोनों को बच्चों के साथ काफ़ी स्क्रीन टाइम मिला है। होशियार इमरान हो या चिड़चिड़ी दुआ, बच्चों ने काफ़ी संतुलित काम किया है। स्कुल के टूटकर बिखरने पर भी बच्चों ने सूझबूझता से अभिनय किया है।
ज्यूलियस पैकियम का पार्श्वसंगीत उतार चढाव से भरपूर है जो दर्शकों को किरदारों के प्रति ज़बरदस्ती सहानुभूति महसूस करवाता है। विशाल मिश्र के गाने 'नै लगदा' और 'सफर' काफ़ी अच्छे हैं।
२००८ में बसी एक प्रेम कहानी, जहाँ दो प्रेमी एक दूसरे को सिर्फ़ डायरी के पन्नों के माध्यम से मिलते हैं, ये बात आसानी से हज़म नहीं होती। पुराने किस्म की प्रेम कहानिया हमारे दर्शकों को पसंद आती हैं, पर नोटबुक की प्रेम कहानी में वो रस नहीं। प्रेम कहानी में अगर उसकी आत्मा ही लुप्त हो गयी हो, तो कैमरामैन आपको सिर्फ़ कश्मीर की सैर करा सकता है।
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