Sonal Pandya
मुम्बई, 31 May 2019 7:00 IST
ज़ैग़म इमाम की ये फ़िल्म कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों को ज़रूर उठाती है, मात्र उनका हल खोजने में असमर्थ रही है।
इनामुलहक ने साकार किया हुआ अल्लाह रखा सिद्दीकी ज़ैग़म इमाम के नक्काश का दुर्लभ किरदार है। ये कुशल कारीगर हिन्दू मंदिरों के दीवारों पर कमाल की नक्काशी करता है और मंदिर के पुजारी वेदांतजी (कुमुद मिश्र) का विश्वस्त है। अल्लाह रखा अपने परिवार के पुश्तैनी नक्काशी काम को आगे बढ़ा रहा है। कुछ चंद बचे कारीगरों में से वो एक है।
पर बदलती दुनिया में बनारस भी बदल रहा है, जहाँ अब धार्मिक उन्माद भी ज़ोरों पर है। इस राजनीतिक कोलाहल के चलते अल्लाह रखा को उसीके धर्म के लोग मंदिरों में काम करने के कारण कोसते हैं। उसके बेटे को मदरसा में दाखिला नहीं दिया जाता। अल्लाह रखा, जिसकी पत्नी भी अब इस दुनिया में नहीं रही, अपने काम को जारी रखता है क्योंकि वो धर्मों में भेदभाव नहीं करता। पर उसकी सुरक्षा के लिए उसे मंदिर में प्रवेश करने से पहले अपने कपडे बदलना आवश्यक हो गया है।
एक बार पुलिस भी अल्लाह रखा को रोकती है, पर वेदांतजी अल्लाह रखा का समर्थन करते हैं। अल्लाह रखा के लिए उसकी दुनिया उसका बेटा मोहम्मद है और उसीके लिए वो दूसरी शादी भी करता है ताकि उसे माँ का प्यार मिले। पर अल्लाह रखा की समस्याएं रुकने का नाम नहीं लेती। उसके दोस्त समद (शारिब हाश्मी) की पैसों की समस्याओं से अल्लाह रखा के परिवार को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
अपने काम को अपने धर्म से अलग रखना अल्लाह रखा के लिए और मुश्किल हो रहा है। साथ ही उसके आसपास के लोग हमेशा उसके काम की वजह से उसे परेशान करते रहते हैं। कहानी के अंत का भले ही अनुमान लगाया जा सकता है, पर फिर भी वो हृदयद्रावक है। फ़िल्म की मुश्किल ये है के लेखक निर्देशक इमाम ने अल्लाह रखा की मुश्किलों को सामने लाते हुए उसका कोई भी हल सामने नहीं रखा है।
फ़िल्म धर्म और सामाजिक मान्यताओं के बारे में कई प्रश्न उपस्थित करती है, पर इसका कोई भी हल खोजने में असमर्थ रही है। ज़्यादातर किरदार ऊपरी सतह पर दिखते हैं। वेदांतजी के बेटे मुन्ना (पवन तिवारी) को आम नेता की तरह दिखाया गया है, जो वोट और सत्ता के लिए कुछ भी कर सकता है। वहीं समद अल्लाह और मुक्ति के लिए अपने दोस्त को भी बेच सकता है।
बनारस को खूबसूरती से दर्शाया गया है, पर कहानी और निर्देशन में कुछ किरदारों के चरित्रों को स्पष्टता नहीं दी गई है और कुछ किरदारों का अचानक झट से मत परिवर्तन हो जाता है, जिसकी कोई वजह स्पष्ट नहीं की गई।
पुजारी वेदांतजी की भूमिका में कुमुद मिश्र और अल्लाह रखा के अच्छे दोस्त समद की भूमिका में हाश्मी ने सूझबूझ के साथ काफ़ी अच्छा काम किया है। पर अल्लाह रखा की भूमिका में इनामुलहक का काम अच्छा होने के बावजूद ऐसा लगता है के उन्हें और अधिक स्क्रीन समय देना आवश्यक था। पर उनके और उनके बेटे के बीच के दृश्य काफ़ी अच्छे लगते हैं, खास कर वो दृश्य जहाँ अल्लाह रखा अपने बेटे को बताता है के मुस्लिम होकर भी वो मंदिर में काम क्यों करता है।
फ़िल्म की एडिटिंग और गति भी इसकी एक समस्या है। ये स्पष्ट नहीं होता के प्रतिक्रियाओं के जो शॉट्स इस्तेमाल किये गए हैं वो आवश्यक थे या फ़िल्म के एडिटर प्रकाश झा और निर्देशक की वैसी मांग थी।
नक्काश एक ऐसी कहानी है जहाँ बनारस का एक साधारण मुस्लिम इस आधुनिक कहे जानेवाले समय में अपने हुनर के ज़रिये जीने की कोशिश कर रहा है। अंततः यूँ लगता है के इस फ़िल्म की कहानी में धर्म, राजनीती और बाकी मुद्दों को अपने क्षमता से अधिक केंद्रित किया गया है, जिस वजह से फ़िल्म अपेक्षित परिणाम को साध्य नहीं कर पाई।
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