Keyur Seta
मुम्बई, 19 Mar 2021 18:26 IST
वास्तविक किरदारों को दर्शाने की कोशिश के कारण यह फ़िल्म रोचक अवश्य लगती है।
हिंदी में सत्या (१९९८), वास्तव (१९९९) जैसी फ़िल्मों की सफलता को देखते हुए गैंगस्टरों पर आधारित फ़िल्मों की फेहरिस्त बढ़ती गयी, जिनमे राम गोपाल वर्मा द्वारा निर्देशित कई फ़िल्में देखि जा सकती हैं।
संजय गुप्ता की मुम्बई सागा के पूर्वार्ध में एक अच्छी बात देखने मिलती है के यह बाकी बुरी तरह लिखी गयी गैंगस्टर फ़िल्मों से अलग वास्तविक जीवन के व्यक्तित्व पर आधारित किरदार दिखाती है।
मुम्बई सागा की कहानी १९८० के दशक की मुम्बई में शुरू होती है, जिसे तब बॉम्बे के नाम से जाना जाता था। अमर्त्य राव (जॉन एब्रहाम) एक सब्जी बेचनेवाले का लड़का है। उसके पिता और बाकि सब्जी बेचनेवाले लोगों को गैंगस्टर गायतोंडे (अमोल गुप्ते) के लोग हमेशा हफ्ता वसूली के लिए परेशान करते रहते हैं। अमर्त्य गायतोंडे के गुंडों से अकेले ही लड़कर इस परेशानी से सबको बचा लेता है।
इस कारण उसे जेल जाना पड़ता है, पर भाऊ (महेश मांजरेकर) उसे बाहर निकाल लेता है। भाऊ एक राजनितिक पार्टी का मुख्य है। उसकी पार्टी मराठी भाषिक लोगों की समस्याओं के लिए लड़ने का दावा करती है। भाऊ की सहायता से अमर्त्य और भी ताकतवर हो जाता है। पर वह अपने छोटे भाई अर्जुन (प्रतिक बब्बर) की सुरक्षा को लेकर चिंतित है।
जैसे जैसे अमर्त्य की दादागिरी बढ़ती जाती है, पुलिस इन्स्पेक्टर और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट सावरकर (इमरान हाश्मी) का कहानी में प्रवेश होता है।
जो भी मुम्बई के अंडरवर्ल्ड के बारे में थोड़ा बहुत जानता होगा, उसे पता चल जाएगा की अमर्त्य और अर्जुन की कहानी अमर नाईक और उसके भाई अश्विन से मिलती जुलती है। लेखक-निर्देशक आपको अप्रत्यक्ष रूप से ये भी बताते हैं के भाऊ का किरदार शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे पर आधारित है। वह अपने भाषण में ये तक कहता है के "सरकार के पास दुबई (दाऊद इब्राहिम की तरफ इशारा) का आदमी है, मेरे पास दादर (अमर्त्य राव) का।" इससे अधिक और कितने हिंट आपको चाहिए?
इतना सब होते हुए भी किरदार अवास्तविक लगते हैं। कथासूत्र इन किरदारों को ना ठीक से पेश करता है ना उनकी गहराई में जाता है। जैसे के सीधा सादा अमर्त्य बड़ी आसानीसे बिना किसी खास तकलीफ के अंडरवर्ल्ड का डॉन बन जाता है। शायद निर्देशक फ़िल्म की गति का ख़याल रख रहे थे। इस गति में बाकि किरदार भी अपना महत्त्व खोने लगते हैं और धीरे धीरे वे कई बार देखे हुए किरदार बन कर रह जाते हैं।
मध्यांतर के करीब सावरकर के प्रवेश से फ़िल्म रोचक लगने लगती है। सावरकर अमर्त्य के पीछे लगता है। पर यहाँ भी दोनों की ये जंग साधारण सी लगने लगती है, जिसके कारण फिर से आपके हाथ निराशा ही आती है।
वीएफएक्स और प्रॉडक्शन डिज़ाइन से भी और अच्छे काम की उम्मीद की जा सकती थी। दर्शक आसानीसे वे दृश्य बता सकते हैं जो उस समय के नहीं लगते। जैसे के २०११ का नए रूप का वानखेड़े स्टेडियम, नए रंग की लोकल ट्रेन, सिरैमिक फिटिंग्स के आधुनिक प्रसाधन ये कुछ उदाहरण हैं।
अगर आप इस फ़िल्म को सिर्फ मनोरंजन के तौर पर देखना चाहते हैं तो मुम्बई सागा कहानी और कुछ दमदार संवादों के लिए देखि जा सकती है। हाश्मी जो पहली बार पुलिस की भूमिका में नज़र आ रहे हैं, यहाँ अपना प्रभाव छोड़ते हैं। यहाँ वे अच्छे फॉर्म में हैं और इस बिखरती फ़िल्म को जोड़ने का काम करते हैं। एक दृश्य में जहाँ वे अपने कनिष्ठ अधिकारियों को बेख़ौफ़ होने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, वो निश्चित ही काबिल-ए-तारीफ है।
पर उनके सिवा और कोई अभिनेता विशेष प्रभाव नहीं छोड़ता। जॉन एब्रहाम फिर एक बार असफल प्रयास करते नज़र आये हैं और उन्हें अधिकतम चिल्लाने तक सिमित रखा गया है। उनके रूप और अंदाज़ ने उनका कुछ काम हलका किया है। महेश मांजरेकर, काजल अगरवाल, प्रतिक बब्बर, गुलशन ग्रोवर और रोनित रॉय का प्रदर्शन साधारण ही है। गुप्ता उनकी पिछली अंडरवर्ल्ड फ़िल्म शूटआऊट ऐट वडाला (२०१३) से आगे बढ़ने में असफल साबित हुए हैं।
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