Shriram Iyengar
मुम्बई, 14 Jun 2019 16:00 IST
चक्री टोलेटी की फ़िल्म में ना तो कलाकार आपको डराते हैं ना ही इसकी स्क्रिप्ट आपको बांधे रखती है।
चक्री टोलेटी की खामोशी (२०१९) फ़िल्म पर कई सारे सवाल किए जा सकते हैं। उन्हीमें से एक सवाल है के इंग्लैंड के किसी सुनसान जगह पर एक बड़े से घर में रहनेवाले लोग सुरक्षा कर्मियों को क्यों तैनात नहीं करते? अगर वो सुरक्षा कर्मियों पर खर्चा करते, तो ऐसे सीरियल मर्डर्स शायद कभी ना होते।
अगर आप सोचते हैं के हमने कोई स्पॉइलर दिया है, तो आपके विचार काफ़ी सकारात्मक हैं ये मानना होगा। चक्री टोलेटी की स्क्रिप्ट इतनी कमज़ोर है के इसमें ऐसा कोई थ्रिल नहीं जो इस फ़िल्म में होना चाहिए था और ना ही कलाकारों का अभिनय इस कमज़ोर कड़ी को ऊपर उठाता है। स्किझोफ्रेनिक प्रभुदेवा और मूक तमन्ना भाटिया का छुपन छुपाई भरा खून का सिलसिला यहाँ आपको देखने मिलता है।
तो ये सफर शुरू होता है सुरभि बनी तमन्ना भाटिया से, जो मूक है लेकिन दर्शकों को अपना भयानक अनुभव बता रही है। वो दर्शकों से कैसे बात कर रही है, ये एक और अलग सवाल है जिसका कोई जवाब नहीं।
ये भयंकर कहानी इंग्लैंड में घटती है, जहाँ गोद ली गई सुरभि बड़ी सी प्रॉपर्टी की मालकिन है। अपने इस बड़ी सी संपत्ति का कुछ हिस्सा वो दान करना चाह रही है। संजय सूरी और भूमिका चावला, जो इस प्रॉपर्टी के ट्रस्टी हैं, इसका विरोध करते हैं।
देव (प्रभुदेवा) एक स्किझोफ्रेनिक सीरियल किलर है, जो पागलखाने से भाग निकला है और रास्ते में खून करते हुए अब इस प्रॉपर्टी में दाखिल हो चूका है। सुरभि को जिसने गोद लिया था, उसी माँ का देव बेटा है, जिसे उसके पिता (विक्रम भट्ट) ने उकसाया है। जैसे ही रात होती है, देव खून का सिलसिला शुरू करता है।
इस थ्रिलर में मुख्य पीड़ित को मूक और गूंगी बना कर उसके चीखने चिल्लाने पर आसानीसे रोक लगा दी है। हालांकि स्क्रिप्ट के लिए ये काफ़ी अच्छा साधन हो सकता था, पर इस साधन को ज़्यादा इस्तेमाल नहीं किया गया। जैसे जैसे प्रभुदेवा इतनी बड़ी हवेली में लोगों को मारते घूमते हैं, आप इस सोच में पड़ जाते हैं के आखिर ये सब कब रुकनेवाला है। इसका पार्श्वसंगीत भी काफ़ी तीव्र है जो थ्रिलर दृश्यों के थ्रिल को और ख़राब कर देता है।
पर इस कहानी की दिशाहीन रचना इस प्लाट में आपकी रूचि ख़तम किये बना रूकती नहीं। ये एक अच्छी लघु कथा अवश्य हो सकती थी, पर फ़िल्म में ये कहानी अपना अस्तित्व खो देती है।
धीरज रतन का स्क्रीनप्ले अनावश्यक और कमज़ोर संवादों के साथ यहाँ वहाँ बेवजह घूमते नज़र आता है। ज़्यादातर किरदारों की पार्श्वभूमि नहीं दिखाई गई, ना ही उनका कोई उद्द्येश नज़र आता है। उन्हें बस मरने के लिए लाया गया है।
प्रभुदेवा का किरदार भी किसी तर्क के बिना ही काम करते नज़र आता है। किरदार स्किझोफ्रेनिक है इसका मतलब ये तो नहीं के तर्क को ही तांक पर रखा जाए। विक्षिप्तता को भी समझा जा सकता है, अगर उसके उद्देश्य के बारे में स्पष्टता हो। पर टोलेटी ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया है।
मज़े की बात ये है के फ़िल्म में विक्रम भट्ट को विशेष आभार का क्रेडिट दिया गया है, हालांकि वे संजय सूरी और भूमिका चावला से अधिक समय परदे पर दिखते हैं। विपिन शर्मा और आकाश खुराणा भी उन दुर्भाग्यपूर्ण किरदारों का हिस्सा बने हैं।
प्रभुदेवा बुदबुदाते हुए ज़्यादातर दर्शाए गए हैं। उनका किरदार एक लड़की के पीछे लगा हुआ है जो बड़ी आसानीसे और मूर्खतापूर्ण तरीकेसे उससे बच निकलती है। फ़िल्म के थ्रिल और रहस्य का अनुमान लगाया जा सकता है, जिससे इसका प्रभाव और कमज़ोर होता जाता है।
तमन्ना को इस फ़िल्म में डरी, सहमी सी दिखने के अलावा ज़्यादा कुछ करने की आवश्यकता नहीं थी, दूसरी ओर उनकी आवाज़ तक यहाँ छीन ली गयी है। वे बार बार हवेली में क्यों चली जाती हैं जब की उनके पास कार लेकर बाहर जाने का उपाय मौजूद है, ये एक और सवाल है जिसका कोई जवाब नहीं।
फ़िल्म के आखिर में एक ट्विस्ट आता है, जिसे मुर्दे में जान डालने की कोशिश कही जा सकती है। एक और सवाल जो हमारे ज़हन में आता है वो यह है के निर्देशक टोलेटी और कलाकारों ने क्या सोचकर यह फ़िल्म बनाई। जाहिर है इसका भी कोई जवाब नहीं।
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