Mayur Lookhar
मुम्बई, 31 Mar 2019 13:00 IST
टुकड़ों में बिखरी हुई कबीर खुराना की यह फ़िल्म संभाषण के माध्यम से खुद को समझने की एक कोशिश है, पर फिर भी इसमें आश्वासकता की कमी नज़र आती है।
संभाषण के माध्यम में बनने वाली फ़िल्मों की खास बात ये है के वे खुद का अभ्यास करनेवाली फ़िल्में होती हैं। फिर वो रिचर्ड लिंकलेटर की बिफोर सीरीज़ हो या स्टीवन राइट की २००३ में आयी अन्थोलॉजी कॉफी एंड सिगरेट्स हो, यहाँ संभाषण के माध्यम से किरदार की पहचान होती है जो की संघर्ष, नाटकीयता, घटनाएं आदि को संवादों के ज़रिये बताते हैं।
कबीर खुराना की कर्मा कैफ़े में खाने के ऊपर संभाषण शुरू होकर कहानी आगे बढ़ती है। १५ मिनिट की यह शार्ट फ़िल्म एक भूखे लड़के (नकुल सहदेव) के इर्द गिर्द घूमती है। ये लड़का एक छोटेसे होटल में आता है जिसका मालिक अमोल गुप्ते का किरदार है। इस जगह का नाम कर्मा कैफ़े है। यहाँ हर किसीको उसके कर्म के अनुसार खाना मिलता है। लड़का इतना भूखा है के वो अपनी कर्म कहानी मालिक को बताना शुरू करता है।
कहानी सीधी सरल लगाती है, लेकिन फिर भी इसमें तत्वज्ञान के अंश भरे हुए हैं। पर इसका ये मतलब नहीं के ऐसी कहानियाँ हमेशा एक अच्छी फ़िल्म बनाती है। कर्मा कैफ़े में खुराना ने सायन्स फिक्शन के तत्वों को कॉस्मो नाम की एक कुकिंग मशीन के द्वारा सामने लाया है, जिसे मानव के विषय में सब पता है। इससे ड्रामा तो उत्पन्न होता है, पर वो अपेक्षानुरूप उभरकर नहीं आता। वो इतना बहाव में बहते जाता है के अपने आप दर्शकों से दूर होते जाता है।
दोनों पात्रों की बोलचाल इंग्लिश में होती है। पर दोनों कभी भी शहर की हिंदी या मराठी भाषा का इस्तेमाल करते नज़र नहीं आते। दूसरी ओर कैफ़े के मालिक के बारे में भी जानने का मौका दिया जाता, तो वो अधिक रोमांचक होता। पर वो निर्देशकीय संकेत हो सकता है।
फ़िल्म का दृश्यांकन भी टुकड़ों में फैला हुआ है लेकिन इससे फ़िल्म का गूढ़ और भयस्पद माहौल बढ़ने में मदद होती है। फ़िल्म की लाइटिंग और साउंड लेवल नीचे रखी गई हैं ताकि संभाषण में कोई रूकावट ना आए।
फ़िल्म रोचक अवश्य है, पर काफी धीमी है तथा बढ़ता संभाषण फ़िल्म की दिशा को भटकाते रहता है। कभी कभी जीवन में भी संभाषण किसी निश्चित जगह नहीं पहुँच पाते। कर्मा कैफ़े उस मुकाम को छूने में कामयाब रहा है।
कर्मा कैफ़े यूट्यूब चैनल हमारा मूवी पर उपलब्ध है।