Sonal Pandya
मुम्बई, 17 Apr 2019 13:59 IST
बड़े कलाकारों की भरमाड़ (आलिया भट्ट, वरुण धवन, आदित्य रॉय कपूर, सोनाक्षी सिन्हा, माधुरी दीक्षित और संजय दत्त) भी अभिषेक वर्मन द्वारा लिखित और निर्देशित इस पीरियड रोमांस ड्रामा को डूबने से बचा नहीं पाये हैं।
रावण दहन की पार्श्वभूमि पर रूप (आलिया भट्ट) तथा ज़फर (वरुण धवन) का मिलना, बहार बेगम (माधुरी दीक्षित) का अपनी बड़ी हवेली में झूले पर झूलना इस तरह के लुभावने दृश्यांकन से सिनेमैटोग्राफर बिनोद प्रधान ने अभिषेक वर्मन निर्देशित इस फ़िल्म में खूबसूरत दृश्य संजोए हैं। इसी लिए इन खूबसूरत दृश्यों के बावजूद जब फ़िल्म अपने जटिल किरदारों की कहानी बुनने में निराश करती है, तो ये सारा तामझाम निरर्थक लगने लगता है।
कलंक स्वतंत्रता पूर्व समय की हुस्नाबाद जैसे काल्पनिक शहर में बसी कहानी है, जिसे लाहौर के नज़दीक बताया गया है। सत्या चौधरी (सोनाक्षी सिन्हा) रूप को इस शहर में लाती है, पर कहानी ऐसा मोड़ लेती है के रूप सत्या के पति देव (आदित्य रॉय कपूर) की दूसरी पत्नी बन जाती है। सत्या बेहद बीमार है और चाहती है के उसके मृत्यु पश्चात उसके पति का अच्छा खयाल रखा जाए।
बलराज चौधरी (संजय दत्त) और देव, दोनों भाई शहर के अखबार द डेली टाइम्स के मालिक हैं और काफ़ी अमीर खानदान से हैं। लन्दन से लौटा देव शहर में स्टील बनाने का कारखाना डालना चाहता है, लेकिन मुस्लिम समाज इसके खिलाफ है, खासकर शहर के ज़फर जैसे लोहार, क्यूंकि इससे उनका काम बंद हो जाएगा। देव ये भी सोचता है के भारत के दो टुकड़े नहीं होने चाहिए। वो अकेला ऐसा किरदार है जिसने फ़िल्म में इसे आश्वासक तरीकेसे दर्शाया है।
पर ज़फर को इसकी कोई परवाह नहीं। वो देव की दूसरी बीवी से इश्क़ लड़ाकर चौधरी परिवार को क्षति पहुंचाने में व्यस्त है। रूप का ज़्यादातर समय हीरामंडी में गुजरता है, जहाँ ज़फर और बहार बेगम रहते हैं। वो बहार बेगम जैसी पूर्व वैश्या से गाना सीखने जाती है, जिससे चौधरी परिवार के पुराने संबंध रह चुके हैं।
शिबानी बथिजा की इस कहानी के स्क्रीनप्ले में अभिषेक वर्मन ने कहानी के कई किरदारों के छोटे बड़े धागों को अंत में एक साथ लाने की कोशिश की है। हुस्नाबाद शहर में किसी उपन्यास भांति कई सारी घटनाएं हैं, जिसमे एक नाजायज़ औलाद है, एक ही इंसान की एक से अधिक शादियां हैं और साथ ही धर्म के नाम पर देश के दो टुकड़े हो रहे हैं। कई सारी कड़ियों को एक साथ जोड़ने का प्रयास यहाँ किया गया है।
देश के विभाजन की कहानी पर कुछ बेहतरीन फ़िल्में बनी हैं, पर कलंक उन फ़िल्मों तक नहीं पहुँच पाती। फ़िल्म का पहला हिस्सा ज़फर और रूप पर केंद्रित है और दूसरे हिस्से में इन दो किरदारों के साथ बाकि सभी किरदार किसी भी समाधानकारक अंत तक पहुँच नहीं पाते।
हिंदी फ़िल्मों की गानों की परंपरा को ध्यान में रख कर जटिल कहानी और किरदारों के साथ फ़िल्म गानो में भी बराबर बटी हुई है। प्रीतम द्वारा संगीतबद्ध इन गानों में से 'घर मारो परदेसिया' और कलंक के शीर्षक गीत को छोड़ बाकि गाने फ़िल्म की कथासूत्र में बाधाएं लाते हैं।
पर इस पीरियड फ़िल्म को काफ़ी विस्तारपूर्वक और विस्तृत रूप से फ़िल्माया गया है। फ़िल्म में दिखाए गए एक्स्ट्रा आर्टिस्ट की कलरफूल वेशभूषा हो या द डेली टाइम्स अखबार की मेज़ पर रखा गया टाइपराइटर हो, फ़िल्म में भव्यता दर्शाने का कोई मौका नहीं छोड़ा गया। प्रोडक्शन डिज़ाइनर अमृता महल नकई ने हीरामंडी और चौधरी के महल को काफ़ी भव्यता प्रदान की है।
मनीष मल्होत्रा और मक्सिमा बासु गोलानी की वेशभूषा बेहद लुभावनी है। शायद हुस्नाबाद शहर १९४० के दशक का सबसे बेहतरीन कपड़ों का शहर रहा होगा। दिलासा देने वाली एक बात अवश्य है के हुसैन दलाल के संवादों ने इस कमज़ोर कहानी में जान डाली है। पर २२ वर्ष बाद एक साथ काम कर रहे संजय दत्त और माधुरी दीक्षित को काफ़ी कम समय दिया गया है। आदित्य रॉय कपूर और सोनाक्षी सिन्हा भी महज सहायक कलाकार की भूमिका में नज़र आते हैं।
आलिया भट्ट और वरुण धवन के किरदार काफ़ी विस्तृत रूप में सामने लाने के बावजूद सिर्फ उन दोनों के कंधों पर कहानी बोझ देना यहाँ काम नहीं करता। दोनों कलाकारों की केमिस्ट्री हमेशा की तरह अच्छी है और दोनों ने फ़िल्म के अंतिम हिस्से में काफ़ी अच्छा काम भी किया है। पर अंत तक फ़िल्म लंबी खींचती जाती है और उस पर स्लो-मोशन एक्शन उसे और लंबा खींचने में मदद ही करता है। कुणाल केमू अब्दुल की छोटीसी भूमिका में प्रशंसनीय काम करते हैं।
फ़िल्म में सबसे उभरकर कुछ आता है तो वो है सिनेमैटोग्राफर बिनोद प्रधान का दृश्यांकन। उन्होंने लाल रंग का खूबसूरती से इस्तेमाल किया है। लाल रंग प्रेम और हिंसा दोनों का प्रतिक बन कर भी सामने आता है। इसे दिल के टूटने और खून के रंग से भी जोड़ा जा सकता है।
फ़िल्म में मौजूद बड़ी स्टार कास्ट और इसकी भव्यता को देखते हुए निश्चित ही फ़िल्म से और ज़्यादा की उम्मीद की जा सकती थी।
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