Keyur Seta
मुम्बई, 02 Mar 2022 14:51 IST
अमिताभ बच्चन अभिनीत झुंड के माध्यम से नागराज मंजुलेने हिंदी फ़िल्मों में बतौर निर्देशक दमदार प्रवेश किया है।
भारत में ऐसे कई खिलाडी हैं जिन्होंने भारत का नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऊंचा किया है। पर ऐसा भी एक भारत है जहाँ कई कुशल युवा रहते हैं। दुर्भाग्यवश उन्हें खिलाडी छोड़िए इंसान भी नहीं समझा जाता और इसकी अहम वजह उनकी जाती और उनका सामाजिक स्तर होता है।
नागराज मंजुले की झुंड में अमिताभ बच्चन का विजय बोराडे यह किरदार इसी भारत पर एक मोनोलॉग के ज़रिये कुछ प्रकाश डालने की कोशिश करता है। ये पूरा दृश्य फ़िल्म के सार तथा उसके उद्द्येश्य के निचोड़ को सामने रखता है।
नागपुर के रेल्वे ट्रैक के नज़दीक स्थित एक झोपड़पट्टी से इस कहानी की शुरुवात होती है। यहाँ की बस्ती के कुछ लड़के चलती ट्रेन से कोयले की चोरी, सस्ती दारू और नशे का ग़ैरक़ानूनी व्यवसाय और चैन चुराने जैसे अपराधों में उलझे हैं। इनके बीच के टंटे ये कोई नयी बात नहीं होती है।
एक दीवार इनको अलग करती है। दीवार से उस पार एक कॉलेज है, जहाँ अमीरों के बच्चे पढ़ने आते हैं। बोराडे, जो झोपडपट्टी के पास ही रहते हैं, इस कॉलेज के फूट्बॉल कोच हैं। बस्ती के इन बच्चों को फुटबॉल सिखाकर उनके जीवन में बदलाव लाने की बोराडे ठानते हैं और इसके लिए वे उन्हें पैसे लेकर खेलने का लालच तक देते हैं। उनकी ये कल्पना काम कर जाती है। पर एक अलग दुनिया में रहनेवाले इन बच्चों को उनका जीवन बेहतर बनाना क्या सच में संभव हो पाता है?
प्रेस स्क्रीनिंग के दौरान सेंसर बोर्ड द्वारा दिए गए प्रमाणपत्र में फ़िल्म की अवधि १७८ मिनिट देखकर कई लोग अचंभित हो गए थे। पर जब फ़िल्म शुरू हुई, उसके बाद इस लम्बाई का ख्याल तक बहुतोंको नहीं आया।
मंजुले अपनी ख्याति के अनुसार रास्तों के इन बच्चों को अनपेक्षित और वास्तविक लेकिन फिर भी मुख्यधारा से जुड़े हुए अंदाज़ में पेश करते हैं। बच्चन की एंट्री भी तब होती है जब आप उसकी अपेक्षा भी नहीं कर रहे होते हैं।
झुंड में फुटबॉल की अहमियत बहुत है पर फिर भी इसे स्पोर्ट्स फ़िल्म कहने की गलती नहीं करनी चाहिए। यहाँ खेल एक ज़रिया है अंत तक पहुंचने का, जिसमे दुर्लक्षित भारत के एक हिस्से पर गंभीर भाष्य किया गया है। झुंड इसमें पूरी तरह सक्षम रूप से यशस्वी हुआ है।
फ़िल्म का कई जगहों पर प्रतीकात्मक होना कहानी की रचना से जुड़ा है। एक दूसरे से काफी अलग दो दुनिया एक दूसरे के बेहद करीब एकसाथ जी रहे हैं। जैसे के भारत में है और नहीं है ऐसे दो वर्ग साथ साथ रहते हैं।
फ़िल्म मध्यांतर में भी ख़तम होती तो भी कोई समस्या नहीं होती। मध्यांतर के बाद आपको यह प्रश्न पड़ता है के इसके बाद क्या दिखाया जायेगा और क्या इसी गति को आगे भी कायम रखा जाएगा। पर मध्यांतर के बाद इसे और ऊंचाई पर ले जाया जाता है। मंजुले उत्तरार्ध में महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि भारत के अन्य हिस्सों से आनेवाले इन वंचित क्षेत्र के बच्चों को आनेवाली मुश्किलों को भी विस्तार से दर्शाते हैं। पर यह सब बड़े ही सूक्ष्म अंदाज़ और व्यंग के कटाक्ष के साथ दर्शाया गया है। अंत तक पहुंचते हुए कुछ अवाक करनेवाले क्षण भी हैं, जो आपके अनुमान को गलत ठहराते हैं।
मंजुले की हर फ़िल्म की तरह यहाँ भी तांत्रिक अंग ज़बरदस्त हैं। सिनेमैटोग्राफर सुधाकर रेड्डी एक्कंटी के बगैर फ़िल्म इतने आला दर्जे की बन पाना संभव नहीं था। अजय गोगावले, अतुल गोगावले का संगीत और साकेत कानेटकर के पार्श्वसंगीत ने फ़िल्म को बेहद ऊर्जा प्रदान की है।
मुख्यधारा की हिंदी फ़िल्मो ने झोपड़पट्टियों को भी अधिकतर इस तरीके से दर्शाया है के उसे देख कर किसी को अजीब ना लगे। पर मंजुले उसका वास्तविक रूप दर्शाते हुए बेशुमार किरदारों की असल ज़िंदगी सामने लाते हैं।
कलाकारों के चयन में भी उन्हें पूरे अंक मिलने चाहिए। आप ये बिलकुल भी नहीं कह पाएंगे के झोपड़पट्टी में रहनेवाले इन किरदारों को किसी कलाकार ने निभाया है। अंकुश उर्फ़ डॉन की महत्वपूर्ण भूमिका अंकुश गेडाम ने बेहतरीन तरीकेसे निभाई है। मंजुले की फैंड्री (२०१४) से फ़िल्मों में आए सोमनाथ अवघडे और अन्य कलाकारों ने ज़िम्मेदारी के साथ अपनी भूमिकाएं निभाई हैं। लंबे बालोवाले एक छोटे बच्चे का काम भी यादगार है।
किशोर कदम, रिंकू राजगुरु और आकाश ठोसर ने भी निःसंदेह अपने किरदार कमाल के निभाए हैं। बच्चन के पत्नी की छोटी भूमिका में छाया कदम याद रहती हैं। मंजुले भी मेहमान भूमिका में अभिनय करते नज़र आते हैं।
अमिताभ बच्चन के लिए यह पिछले दस साल के सर्वोत्तम भूमिकाओं में से है। बच्चों के प्रति निस्वार्थ भावना और समर्पण उनकी अदाकारी से झलकते हैं। अपने मोनोलॉग में पूरी तरह से वे छा जाते हैं।
झुंड में कोई बड़ी कमी ढूंढना मुश्किल है। हॉं, ये बात है के विजय बोराडे का अचानक बच्चों के लिए इतना सोचना अटपटा सा लग सकता है। शायद इसे मज़बूती देने के लिए कुछ किया जा सकता था। उत्तरार्ध में भी फ़िल्म की गति थोड़ी धीमी होती है।
पर झुंड अपने अच्छे संदेश और एक यादगार फ्रेम, जिसमे डॉ आंबेडकर और बच्चन एकसाथ नज़र आते हैं, के लिए हमेशा यादगार रहेगी।
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