Sonal Pandya
मुम्बई, 19 Jul 2019 9:00 IST
समीप कंग द्वारा निर्देशित इस प्रभावहीन फ़िल्म में दर्शकों को हँसाने का बहुत ही साधारण सा प्रयास किया गया है।
अमरीका के बड़े फ़िल्म समीक्षक रॉजर एबर्ट ने १९८० के दशक के सिनेमा को कुछ नाम दिए थे। 'इडियट प्लॉट' ये उन्ही में से एक नाम था। इसका ये अर्थ था के ऐसे प्लॉट्स जिसमे मुश्किलें हैं, लेकिन उन्हें बहुत आसानीसे हल किया जा सकता है अगर उसके किरदार मूर्ख न हों। समीप कंग द्वारा निर्देशित झूठा कहीं का (२०१९) वही इडियट प्लॉट है।
वरुण (ओंकार कपूर) और करण (सनी सिंह निज्जर) मॉरिशियस में रहते ऐसे दोस्त हैं जो किसी काम के नहीं हैं। दोनों बेरोज़गार हैं और दोनों का कोई भविष्य नज़र नहीं आ रहा। फिर भी दोनों को ऐसी लड़कियां मिलती हैं जो उनसे शादी करना चाहती हैं। अपने गुंडे भाई टॉमी (जिमि शेरगिल) के आशीर्वाद से करण सोनम (ऋचा वैद्य) से शादी करना चाहता है। घर जमाई बन कर रहने की तैयारी दर्शाकर वरुण रिया (निमिषा मेहता) को शादी करने के लिए मना लेता है।
दोनों ये सब कैसे कर पाते हैं? ज़ाहिर है, झूठ बोलकर।
वरुण रिया और उसके परिवार को ये बताता है के उसका कोई परिवार नहीं। जब उसके पिता, मामा और मामी उसके ससुराल के बगल में रहने आते हैं, तो उसे झूठ पर झूठ बोलना पड़ता है। करण एक सच्चे दोस्त की तरह अपने दोस्त के झूठ को सही बताते हुए वरुण के पिता योगिराज (ऋषि कपूर) को ये विश्वास दिलाता है के उसकी शादी रिया से हुई है। दोनों दोस्तों को एक दूसरे का दिनक्रम निभाना है, नौकरी भी ढूंढनी है और परिवारों को संभालना भी है।
यहाँ सब कुछ उलझा हुआ है। एक झूठ को छुपाने के लिए दूसरा झूठ बोला जा रहा है। कोई सीधी बात नहीं करता। फ़िल्म के कॉमेडी लाइन्स १९९० के दशक की फ़िल्मों कि तरह लगते हैं। एक जोक तो एक-दो नहीं बल्कि तीन बार दोहराया गया है, पर हँसी फिर भी नहीं आती।
सभी किरदार झगड़ते रहते हैं, एक दूसरे पर हावी होने की कोशिश करते हैं और मॉरिशियस में भारत की तरह रहते हैं। वैभव सुमन और श्रेया श्रीवास्तव के ज़्यादातर संवाद आक्रामक और महिलाओं के लिए अपमानास्पद लगते हैं। लिलेट दुबे जैसी मंझी हुई अभिनेत्री को रिया की माँ रूचि की भूमिका में कुछ खास करने का मौका नहीं मिला।
कैंसर ट्रीटमेंट के चलते बड़े परदे से काफ़ी समय से दूर रहे ऋषि कपूर एक टिपिकल पंजाबी पिता की भूमिका को मज़ेदार रूप से निभाते हैं। पर उनकी मौजूदगी भी फ़िल्म को बचा नहीं पाती। उनके और राजेश शर्मा के दृश्य काफ़ी भड़क रूप से दर्शाए गए हैं। शेरगिल एक भड़कीले गैंगस्टर की भूमिका में हैं जो अपने इर्दगिर्द के लोगों से इतना परेशान हो चूका है के उसे वापस जेल जाना ही बेहतर लग रहा है।
फ़िल्म के दोनों नायक, ओंकार और सनी, एक दूसरे के साथ जचते हैं। पर बस यही दिलासादायक बात कही जा सकती है। सनी सिंह सोनू के टीटू की स्वीटी (२०१८) के किरदार का ही दूसरा रूप यहाँ निभाते दिखते हैं।
कई सारे संगीत निर्देशकों के नाम इस फ़िल्म से जुड़े हैं, पर फिर भी किसी गाने का कोई खास प्रभाव नहीं रहता। कंग के नाम कैरी ऑन जट्टा (२०१२) और लकी दी अनलकी स्टोरी (२०१३) जैसी हिट पंजाबी फ़िल्मे हैं। पर इस फ़िल्म में उन्होंने आज के दर्शकों को ध्यान में रख कर कोई बदलाव या नया कुछ करने का प्रयास नहीं किया है। प्रॉडक्शन ख़राब से अनुभवहीन लगता है और कुछ चंद हँसी के अलावा फ़िल्म से और कुछ हासिल नहीं होता।
फ़िल्म के दौरान दुबे की किरदार रूचि दो बार कहती है, "आई ऍम सो कन्फ्यूज़्ड।" असल में इसी लाइन से अच्छी हँसी मिलती है। ऋषि कपूर के इसी नाम की एक पुरानी फ़िल्म है जो १९७९ में आयी थी और उनकी पत्नी नीतू इस फ़िल्म में उनकी नायिका थीं। इस फ़िल्म से अच्छा है के आप पुरानी झूठा कहीं का देखें।
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