Sonal Pandya
मुम्बई, 31 Jan 2020 8:30 IST
एच इ अमजद खॉं की यह फ़िल्म पाकिस्तान के स्वात प्रदेश के तालिबान संघर्ष की पार्श्वभूमि बताने में बहुत समय ज़ाया करती है, जिसमें मलाला का मूल विषय पीछे छूट जाता है।
तीन गनशॉट्स के साथ एक होशियार छात्र का जीवन बिखर गया। कहानी का यही रुख आप सोचते होंगे, पर ये टीनेज लड़की २०१२ में हुए इस तालिबानी हमले के पहले जितनी सामाजिक रूप से सक्रीय थी, इस हमले के बाद उसकी सक्रियता और बढ़ी। उसके सामाजिक योगदान के लिए २०१४ में वो सबसे कम उम्र की नोबेल शांति पुरस्कार सन्मानित व्यक्ति चुनी गयी।
एच इ अमजद खॉं की फ़िल्म इस हमले के साथ शुरू होती है और उसके बाद स्वात प्रदेश में और पकिस्तान में तालिबानी ज़ुल्म का बारीकियों से दर्शन होता है। पहले एक घंटे तक पूरा ध्यान तालिबान पर दिया गया है, उनका ज़ुल्म और पाकिस्तानी सेना की उनको काबू में लाने में नाकामी दर्शायी गयी है। मिंगोरा में हम यूसफज़ाई परिवार से मिलते हैं, जिसमे मलाला (रीम शेख), उसके पिता ज़ियाउद्दीन (अतुल कुलकर्णी), जो स्कुल प्रिंसिपल हैं, और उसकी माँ तूर पेकाई (दिव्या दत्ता) हैं। अपने तीनो बच्चों को, खास कर बेटी को, ये परिवार पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है।
तालिबान शरिया कानून लागू करता है और उस क्षेत्र के महिलाओं की आज़ादी पर रोक लगा दी जाती है। फ़िल्म का शीर्षक गुल मकाई रखा गया है, जो के मलाला का ब्लॉग नेम था। बीबीसी उर्दू के लिए तालिबान के दहशत में जी रही ज़िंदगी के बारे में उन्होंने इस नाम से लिखा था। पर दुर्भाग्य से मलाला की दहशत भरी ज़िंदगी उत्तरार्ध में देरी से आती है।
इसके बजाय, खॉं तालिबान की क्रूरता दर्शाते हैं। एक समय बाद उसे देख पाना मुश्किल हो जाता है। इसकी एडिटिंग और प्रस्तुति भी ख़राब है और घटनाओं का क्रम आपको और उलझा देता है।
आरिफ ज़कारिया, ओम पूरी, पंकज त्रिपाठी और शारिब हाश्मी छोटी भूमिकाओं में ज़ाया किये गए हैं। मुकेश ऋषि और अभिमन्यु सिंह तालिबानी लीडर दिखाए गए हैं, पर ज़्यादातर फ़िल्मों में नज़र आनेवाले मुस्लिम आतंकवादियों की भांति ही उन्हें दर्शाया गया हैं।
खॉं को शायद मलाला पर अधिक ध्यान देना आवश्यक था। फ़िल्म के आखरी १५ मिनिट में मलाला के व्यक्तित्व की झलक देखने को मिलती है, पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। रीम शेख अपने किरदार में जचती अवश्य हैं, पर हम उनसे भावनिक रूप से जुड़ नहीं पाते। मूल मलाला कई ज़्यादा ऊर्जाशील और बेख़ौफ़ हैं। ज़ियाउद्दीन एक प्रोग्रेसिव इंसान है, जो धमकियों से ना डरते हुए लड़कियों की शिक्षा के लिए लड़ता है। कुलकर्णी इस भूमिका को आसानीसे निभाते हैं।
अगर आप सच में मलाला के बारे में जानना चाहते हैं तो ही नेम्ड मि मलाला (२०१५) ये डॉक्यूमेंट्री देखिये जिसमे ये युवा एक्टिविस्ट ह्यूमन राइट्स के लिए और बच्चों की पढाई के लिए पूरे दिल से काम कर रही हैं।
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