Suyog Zore
मुम्बई, 28 Apr 2020 13:43 IST
जय शर्मा द्वारा लिखित-निर्देशित गधेड़ो शॉर्ट फ़िल्म के अनेक अंगों से विवेचन हो सकता है।
गधेड़ो एक उपहासात्मक शॉर्ट फ़िल्म है जो मनुष्य स्वभाव के बारे में हमें बताती है और ये भी दर्शाती है के कैसे ज्ञान और शिक्षा दो भिन्न बातें हैं। ये कहानी राजस्थान के एक छोटेसे गाँव झालामंड में दर्शायी गयी है।
माटसा (चन्दन रॉय सन्याल) गाँव का एकलौता शिक्षित आदमी है। कमसे कम उसका तो वही सोचना है। वो गोरु (विक्रांत मसी) नाम के धोबी के घर में किराये से रहता है। गोरु पढ़ालिखा नहीं है। गोरु की पत्नी (तृप्ति खामकर) भी है। दोनों शिक्षक के व्यक्तित्व से प्रभावित हैं। एक दिन कौतुहल स्वरुप गोरु माटसा से पूछता है के कैसे हर व्यक्ति उसका इतना आदर करता है, तो माटसा जवाब देता है के वो जानता है के कैसे गधे को आदमी बनाया जाए।
ये जानकर गोरु उसे बड़ी रकम देकर अपने गधे को आदमी बनाने को कहता है। उसके बाद क्या होता है, यही फ़िल्म की मुख्य कहानी है।
अगर फ़िल्म के बारे में कम शब्दों में कहना हो तो हम इसे 'विचित्र, लेकिन मज़ेदार' कह सकते हैं। फ़िल्म की कहानी में ही विचित्रता समाविष्ट है। लेखक-निर्देशक जय शर्मा ने इस विचित्रता को सफलतापूर्वक स्क्रीन पर दर्शाया है।
निर्देशक ने सूक्ष्म चीजों से कई बातें बताने की कोशिश की है। जैसे के, एक दृश्य में गोरु और उसकी पत्नी माटसा को किराया भरने को कह रहें हैं। गोरु अपने कांधे निचे कर एक भी शब्द कहने से डर रहा है। जब उसकी पत्नी उसे कोहनी मारती है, तब जाकर वो किराया मांगता है। माटसा उसे रु५० की नोट देता है। पर उसके हावभाव से लगता है के जैसे वो धोबी पर एहसान कर रहा हो।
उसके बाद माटसा कहता है के दिवाली का किराया वो होली के बाद देगा। इसका मतलब के वो किराया समय पर नहीं दे रहा है और फिर भी धोबी गोरु सोचता है के माटसा महान आदमी है। इससे हम मनुष्य स्वभाव के उस गुण को समझ पाते हैं के कैसे हम जिसका बहुत आदर करते हैं, उसके अवगुण या गलत बर्ताव को अनदेखा कर देते हैं।
विचित्र कैमरा ऐंगल्स, करीबी क्लोज़-अप्स, हटके पार्श्वसंगीत इसे देख कर ये महसूस होते रहता है के यहाँ कुछ तो अलग घट रहा है। दर्शक इस शॉर्ट फ़िल्म को कई तरीकों से समझ सकते हैं। एक ये सीख मिल सकती है के कैसे थोडीसी शिक्षा भी किसी व्यक्ति को इतना घमंडी बना सकती है के वो दूसरों को छोटा समझने लगता है। और कैसे गरीब और अशिक्षित लोगों का कोई आसानी से फायदा उठा सकता है, जो के उन पर अंध विश्वास रखते हैं। शायद निर्देशक ये बताना चाह रहे हैं के किसी व्यक्ति के अच्छे इंसान होने का शिक्षा केवल एकमेव मापदंड नहीं।
एक और अर्थ ये भी निकाला जा सकता है, जो शायद बहुत गहरा लगे, लेकिन शॉर्ट फ़िल्म की विचित्रता को देखते हुए योग्य भी है। इसे धर्मगुरुओं और बाबा लोगों के अवैज्ञानिक और निराधार सिद्धांतों का उपहास कहा जा सकता है। क्योंकि उनके भक्त भी उन पर अन्धविश्वास रखते हैं और हर बात मान लेते हैं, जब की उनका उत्पीड़न स्पष्ट नज़र आ रहा होता है। यही बात नेता, सेलिब्रिटीज़ और उनके कार्यकर्त्ता, अनुयायी या फैन्स पर भी लागू होती है।
अशिक्षित गोरु की भूमिका में विक्रांत मसी ने बेहतरीन अभिनय किया है। अपने किरदार का भोलापन उन्होंने खूबी से दर्शाया है। लहज़े और भाषा पर भी उन्होंने अच्छा काम किया है। उनके लहज़े में कोई ज़बरदस्ती नज़र नहीं आती।
चन्दन रॉय सन्याल का भी काम उतना ही अच्छा हुआ है। घमंडी शिक्षक की भूमिका में वे भी जचते हैं, जो के खुद को सबसे होशियार समझता है। कुछ दर्शकों को उनके अभिनय में ओवर एक्टिंग नज़र आ सकती है, पर ये उन्होंने जानबूझ कर किया है और फ़िल्म की थीम को लेकर उचित भी लग रहा है।
इस फ़िल्म की विचित्रतता ही इसकी सबसे बड़ी ताकत है। इस तरह की कॉमेडी जिन्होंने पहले नहीं देखि हैं, उन्हें गधेड़ो शायद पसंद ना आए, पर बाकियों के लिए ये एक उत्तम उपहास या प्रहसन है, ऐसा कहना गलत नहीं होगा। अपने १६ मिनिट इस शॉर्ट फ़िल्म के लिए खर्च करने पर आप नहीं पछताएंगे।