Suparna Thombare
Mumbai, 01 Feb 2019 15:17 IST
लेखक ग़ज़ल धालीवाल और शैली चोप्डा धरने फ़िल्म में न्यूनतम ड्रामा रखते हुए फ़िल्म की मुख्य कहानी और उसमे दिए गए सन्देश पर विशेष ध्यान दिया है।
जहाँ तक मुख्यधारा की रोमैंटिक कॉमेडी फ़िल्मों का सवाल है, ज़्यादातर फ़िल्में सर्वसाधारण मार्ग पर ही चलती हैं। अंतर सिर्फ उनमें दिखाए गए संघर्ष और उसकी ट्रीटमेंट में होता है।
“ट्रू लव के रास्ते में कोई ना कोई सियाप्पा हो ही जाता है,” सोनम कपूर का किरदार फ़िल्म के पहले कुछ दृश्यों में कहता है। इस कहानी में ऐसे सियाप्पा और संघर्ष के क्षण मुख्य नायिका की लैंगिकता से जुड़े हैं।
एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ये कई मायनो में एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है। सबसे पहले तो हिंदी मुख्यधारा में ये पहली फ़िल्म है जो लेस्बियन रोमांस जैसी चार दिवारी में दबी हुयी बातों के लिए दरवाज़े खोलती है।
दूसरे, ये विषय आज इतना ज़रूरी इसलिए भी है क्योंकि पिछले वर्ष ही भारतीय संविधान की धारा ३७७ से समलैंगिकता को अपराध ठहराने वाली बात को हटाया गया। ऐसी स्थिति में कई सारे भारतीय इस कायदे के अमल को लेकर दुविधा और असमंजस की स्थिति में हैं, जहाँ समलैंगिक संबंधों को समझना और उन्हें स्वीकार करना मुश्किल पड़ रहा है।
इसलिए मुख्यधारा में समलैंगिकता को किस प्रकार से दिखाया जाएगा ये देखना महत्वपूर्ण है।
निर्देशिका शैली चोप्डा धर हमें पंजाब के एक छोटेसे शहर मोगा की लड़की स्वीटी (सोनम कपूर) की कहानी बताती हैं। जहाँ स्वीटी के परिवारवाले उसके लिए दूल्हा ढूंढने की ओढ़ में लगे हुए हैं, वहीं स्वीटी लंदन के आर्ट स्कुल में जाने का प्लान बना रही है। यूके एम्बसी में वीज़ा इंटरव्ह्यू के लिए निकली स्वीटी अपने आक्रामक भाई (अभिषेक दुहन) से छुपते छुपाते दिल्ली के थिएटर में पहुंचती है, जहाँ अचानक उसकी मुलाकात एक नए लेखक साहिल मिर्ज़ा (राजकुमार राव) से होती है।
मिर्ज़ा को स्वीटी से तुरंत प्यार हो जाता है और वो मोगा तक उसका पीछा करता हुआ पहुंचता है। पर उसके सपनों पर पानी फिर जाता है जब स्वीटी उसे बताती है के वो लेस्बियन है।
फ़िल्म के पहले भाग में स्वीटी के इस रहस्य की तरफ सिर्फ़ इशारा किया गया है। मध्यांतर के समय ये राज़ खोला जाता है और वहीं आप की उत्कंठा अचानक बढ़ने लगती है।
इस राज़ के खुलने के बाद कहानी वैसे ही बढ़ती है जैसे आम तौर पर किसी भी रोम कॉम में दिखाया जाता है। रेजिना कसांड्रा को बहुत कम स्क्रीन टाइम दिया गया है पर उनके दृश्य फ़िल्म को और गहराई देते हैं।
फ्लैशबैक में स्वीटी बचपन में बढ़ती उम्र के साथ अपने आप को दूसरे बच्चों से अलग पाती है। उसे ऐसा सोचने पर मजबूर करना के वो अलग है और परिवार की इज़्ज़त के खातिर भाई का इस बात को हमेशा छुपाये रखना ये सारे दृश्य काफ़ी गंभीरता से फ़िल्माये गए हैं।
फ़िल्म के अंतिम समय में स्क्रीनरायटर्स ग़ज़ल धालीवाल और धर ने एक नाटक के ज़रिये समलैंगिक कहानी को स्वीटी के परिवार और उस छोटे शहर के दर्शकों को समझाने की कोशिश की है, जो के ऐसी केस में उचित भी है।
एक दृश्य में जब अनिल कपूर देख रहे हैं के उनकी बेटी ग्लास के बॉक्स में बंद है और मदद की पुकार कर रही है, ये फ़िल्म का सबसे भावुक दृश्य है।
अनिल कपूर का पिता का किरदार कई वर्षोंसे ख़ुद अपने आप से झूझ रहा है। वो अपनी माँ को खाना बनाने में अपनी रुचि कभी नहीं समझा पाया। उसकी माँ सोचती है के ये स्त्रियों के लक्षण हैं। इस वजह से अनिल कपूर को मजबूरन अपने माता-पिता के सपने को जीना पड़ा। अपने इस अनुभव से वो अपनी बेटी को समझ सकता है के वो बचपन से किस दौर से गुज़री होगी।
एक पिता का अपने बेटी की लैंगिकता को समझना ये अनिल कपूर के अभिनय का सबसे ज़बरदस्त पहलु उनके बाकी दृश्यों में सबसे अधिक उभरकर आता है। जूही चावला अतिउत्साहित छत्रो के रूप में कमाल करती हैं। उनके और अनिल कपूर के दृश्य हसी का माहौल तैयार करते हैं और फ़िल्म को और हलका फुलका बना देते हैं।
एक क्षण स्वीटी साहिल से विनती करती है के उसका ये नाटक वो छोटे गावों में ले जाए और उस जैसी कई स्वीटी का जीवन बचाये।
इस दृश्य से पता चलता है के धर ने इस फ़िल्म को एक साधारण रोम कॉम जैसी ट्रीटमेंट क्यों दी है तथा महानगरों के बजाय इस कहानी को पंजाब के छोटेसे शहर में क्यों स्थित किया। इससे एक और बात सामने आती है के निर्देशिका इस कहानी को बहुत बड़े दर्शक समूह तक पहुँचाना चाहती हैं। समलैंगिक प्रेम कहानी को किसी भी साधारण प्रेम कहानी की तरह दिखाना ये एक बहुत अच्छा और सही दिशा में बढ़ने वाला कदम है।
बचपन से मैं दूसरों से अलग हूँ ये भावना हो या गे लोग वेस्टर्न कल्चर से प्रभावित होते हैं और समलैंगिकता एक पर्याय है ऐसी सोच हो, ये कुछ उदाहरण हैं जिन्हे फ़िल्म में छेड़ा गया है। पर इन मुद्दों को लेकर जो और छोटे छोटे सवाल उठते रहते हैं, उनको ये फ़िल्म नहीं छूती। निर्देशिका धर का ये अपना चुनाव है के वे किस हद तक विषय की गहराई में जाए।
स्वीटी जैसे महत्वपूर्ण किरदार को निभाना बिलकुल भी आसान नहीं था और सोनम कपूर को इस भूमिका को चुनने के लिए ज़रूर श्रेय देना चाहिए। सोनम ने इस किरदार को ईमानदारी से निभाते हुए उसे एक मासूमियत दी है और अपने अभिनय में किरदार के सम्मान का भी ध्यान रखा है। पर किरदार को गहराई देने में वे असमर्थ रही हैं। किरदार के अन्य पहलुओं को और उजागर करतीं तो शायद उनके प्रदर्शन में और गहराई नज़र आती।
अन्य कलाकारों में राजकुमार राव, सीमा पाहवा और ब्रिजेन्द्र काला (नौकर) तथा मधुमति कपूर (दादी) इस कहानी को बढ़ाते हुए उसे अपने अभिनय से और मज़ेदार बनाते हैं।
लेखकोंने भी फ़िल्म में न्यूनतम ड्रामा रखते हुए फ़िल्म की मुख्य कहानी और उसमे दिए गए सन्देश पर विशेष ध्यान दिया है। लैंगिकता के भावुक क्षणों को भी फ़िल्म में दर्शाया नहीं गया है। इस पारिवारिक फ़िल्म में पूरी तरह से सच्चे प्यार की कहानी पर लक्ष केंद्रित किया गया है।
एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा एक रोम कॉम है जहाँ दिल को छूनेवाली प्रेम कहानी है और एक हैप्पी एंडिंग भी। थिएटर के अंधेरे में कई लोग शायद ये फ़िल्म देखते वक़्त अपने आप को अस्वस्थ भी महसूस करें, पर फिर भी ये एक ज़रूरी और महत्वपूर्ण पारिवारिक फ़िल्म है। और यही इस फ़िल्म की जीत है।
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