Shriram Iyengar
मुम्बई, 17 May 2019 13:51 IST
अकिव अली के निर्देशन में बनी यह पहली फ़िल्म बढ़ते उम्र के रोमांस और मनोरंजन का अनोखा मिश्रण है।
अगर अभिनेता अपने उम्र के किरदार निभाने की ये शुरुवात है, तो अजय देवगन की दे दे प्यार दे की इस भूमिका को याद किया जाएगा। अकिव अली की इस मनोरंजक रोमैंटिक फ़िल्म में अजय ५० वर्ष के इंसान की भूमिका निभा रहे हैं, जो अपनी पत्नी से अलग हुआ है और २६ वर्षीय औरत के प्यार में है।
हालांकि फ़िल्म परिवार के कॉमिक क्षणों और एज गैप के इर्द गिर्द घूमती है, मगर फिर भी इस बात की भी प्रशंसा होनी चाहिए के फ़िल्म में बिगड़े हुए रिश्तों से ऊपर उठने और प्यार के ज़रिये जीवन के सच को जानने का प्रयास भी किया गया है।
आशीष (अजय देवगन) ५० वर्ष की आयु का लन्दन में बसा एक इन्वेस्टर है। वो आएशा (रकुल प्रीत सिंह) से मिलता है। आएशा जवान और खूबसूरत है, इंजीनियर है, लेकिन बार में काम कर रही है। दोनों के स्वभाव एक दूसरे से विपरीत हैं, पर फिर भी दोनों एक दूसरे की तरफ खींचे चले जाते हैं।
रोमांस शुरू होता है, लन्दन शहर में घूमना, गाने और बेडरूम के दृश्यों तक कहानी बढ़ती है। एक छोटेसे ब्रेकअप के बावजूद भी जब दोनों को लगता है के ये महज आकर्षण नहीं है, तो आशीष अपनी गर्लफ्रेंड को भारत में अपनी विभक्त पत्नी, बेटी और बेटे से मिलाने का निर्णय लेता है। यहाँ से कहानी अलग मोड़ लेती है।
एज गैप के मुद्दे को कई तरीकेसे समझने की कोशिश होते हुई देखना अच्छा लगता है। मगर प्यार में धोके की बात इस में कहीं खो गई ऐसा भी लगता है। पर पूरा ध्यान एज गैप पर दिया गया है।
जावेद जाफरी समुपदेशक और दोस्त की भूमिका में कहते है, "वो बस एक गोल्ड-डिगर है।" आएशा भी कहती है के उनमे हमेशा मतभेद रहेंगे। "मेरा पहला अनुभव तुम्हारा दूसरा होगा," वो कहती है।
पर जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है, दोनों इन मतभेदों के बावजूद एक दूसरे को दिल से चाहने लगते हैं। इस रिश्ते के प्रति दोनों की उलझने, शारीरिक आकर्षण और उनके परिणाम इन सभी बातों को फ़िल्म में दर्शाया गया है, फिर भले ही उसमे वास्तविक आधार की कमियां हो।
विभक्त पति-पत्नी का प्यार तथा नयी जोड़ी का प्यार, ऐसे दो अलग प्यार के रूप देखना भी फ़िल्म को और मज़ेदार बनाता है।
लव रंजन को प्यार का पंचनामा फ्रैंचाइस और सोनू के टीटू की स्वीटी (२०१८) के सेक्सिस्ट होने की आलोचना, उचित आलोचना, का सामना करना पड़ा था। पर इस बार उन्होंने प्यार और उसके टूटने के विषय को और अच्छे तरीकेसे दर्शाया है। इसमें पहली फ़िल्मों जैसी अति नाटकीयता भी नहीं है। इस बात के लिए उनकी प्रशंसा ज़रूर होनी चाहिए।
विभक्त पत्नी की भूमिका में तब्बू ने कमाल का काम किया है। एक स्वतंत्र सफल महिला जो अपने बच्चों को निडरता से पाल-पोसकर बडा करती है और अपनी विभक्त होने की सच्चाई का सामना करती है, ऐसी भूमिका में वे सहज लगती हैं। तब्बू और अजय देवगन ने अपने किरदारों के माध्यम से फ़िल्म को परिपक्वता और गहराई प्रदान की है। मध्यांतर के पहले जो हलका फुलका माहौल रकुल प्रीत सिंह के किरदार की वहज से आता है, उससे काफ़ी विपरीत लेकिन आवश्यक बदलाव हमें बाद में मिलता है। फ़िल्म के उत्तरार्ध में तब्बू का भावनात्मक आवेग उनके अंदर की गंभीर अभिनेत्री का पुनः परिचय कराता है।
रकुल प्रीत सिंह विचित्र परिस्थिति में फसी युवा लड़की की भूमिका में अच्छा प्रदर्शन करती हैं। नाट्यमय क्षणों में उनकी अभिनय क्षमता में भले ही कमी नज़र आती हो, पर उनका उत्साह और उनकी ऊर्जा इस कमी को ढकने में उनका साथ देते हैं। तब्बू के साथ होती उनकी नोकझोंक देखने लायक है। अजय देवगन अपने शैली में व्यंग करते हैं, पर यह भी लगता है के वे सारी भावनाएं सिर्फ़ चार भावों में ही पेश कर रहे हैं।
फ़िल्म में हास्य-व्यंग काफ़ी अच्छा है और अजय देवगन और तब्बू के साथ जिमि शेरगिल भी इसमें अपना योगदान दे रहे हैं। शेरगिल अपनी छोटी भूमिका में भी अपने कॉमेडी अंदाज़ को काफ़ी रोचक ढंग से पेश करते हैं, जिसे अभी तक ज़्यादातर देखा नहीं गया है। कई कड़ियों को एक साथ मिलाकर जो संभ्रम उत्पन्न होता है, उससे कई हास्य फव्वारे उछलकर सामने आते हैं।
फिर भी फ़िल्म में कुछ ऐसे क्षण हैं जब आप पल्टा खाते हैं। आलोकनाथ, जिन पर लैंगिक शोषण का आरोप है, अजय के आशीष किरदार पर आएशा के 'अंकल' होने का कटाक्ष करते हैं, ये एक ऐसा ही अनुभव देनेवाला दृश्य है। पर ये एक अलगही बात हो सकती है।
आएशा के व्यवहार को लेकर भी ऐसी ही कुछ बातें कही जा सकती हैं। उसे परिवार से अलग रखे जाना, बॉयफ्रेंड के बेटे का इश्क फर्माना, और उसकी विभक्त पत्नी से ताने सुनना, ये सब देख कर कोई भी औरत अपने बॉयफ्रेंड को छोड़कर चली जाती। पर क्या करें, बॉयफ्रेंड के परिवार को उसका परिचय उसकी सेक्रेटरी के रूप में करवाया गया है।
अंत में अकिव अली ने हर रिश्ते को एक खास ट्रीटमेंट देते हुए उसको एक विकल्प देने की कोशिश की है, जो थोडासा अटपटा लगता है। पर जैसे के फिलॉसोफर अल्बर्ट कामू ने कहा है, अगर कुछ अटपटा सा हो तो इसका ये मतलब नहीं के उसका आनंद नहीं लिया जा सकता।
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