Sukhpreet Kahlon
मुम्बई, 19 Aug 2021 15:23 IST
अक्षय कुमार के कट्टर फैन्स को छोड़ दें तो बाकि इस रेट्रो स्वैग को झेल ना पाएंगे।
अक्षय कुमार की बहु प्रतीक्षित बेल बॉटम आखिरकार थिएटर्स में प्रदर्शित हो चुकी है। कोविड-१९ के दूसरे चरण के बाद जो लॉकडाउन लगा है, उसके बाद ये पहली बड़ी फ़िल्म है जो थिएटर में प्रदर्शित हुई है। फ़िल्म के प्रदर्शन के पूर्व इससे काफी अपेक्षाएं थी, पर प्रदर्शन के बाद सब पर पानी फेर गया है।
रंजीत एम तिवारी द्वारा निर्देशित बेल बॉटम में अक्षय कुमार के साथ अक्षय कुमार ने ही काम किया है। आदिल हुसैन, लारा दत्ता भूपति, डॉली अहलूवालिया, हुमा कुरैशी और वाणी कपूर जैसे कलाकारों का ज़्यादा इस्तेमाल नहीं किया गया है। इस जासूसी थ्रिलर में एक छुपा हुआ एजेंट (अक्षय कुमार) हवाई जहाज में बंदी बनाए गए यात्रियों को सही सलामत वापस लाता है।
अंशुल मल्होत्रा (अक्षय कुमार) बहुत कुछ करता है। वो चेस चैम्पियन है, कई भाषाएं बोलता है, गायक है और किसी भी सूरत में प्रशासकीय सेवा परीक्षाओं को पास करना चाहता है। मल्होत्रा अपनी माँ (डॉली अहलूवालिया) को बहुत चाहता है और उसे खुश करना चाहता है। पर हालात ऐसे हो जाते हैं के वो रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) का एजेंट बन जाता है।
कई फ्लैशबैक के साथ हवाई जहाज हाइजैकिंग का पूरा माहौल समझाया जाता है। इसके पीछे क्या इरादे हैं, पाकिस्तान का डबल गेम, वगैरा वगैरा। मुख्य घटना १९८४ में होती है। एक और हाइजैकिंग होती है। मल्होत्रा का बॉस संतुक (आदिल हुसैन) मल्होत्रा का सुझाव देता है। मल्होत्रा का कोडनेम बेल बॉटम है। कई मुश्किलें और ट्विस्ट हैं, पर सबका अंदाज़ा हो जाता है। खिलाडी कुमार देशभक्ति और भारतीय संस्कारों के साथ अपना सिक्का बजा कर आते हैं।
पूर्वार्ध में हाइजैकिंग का माहौल बनाया गया है। शुरुवात में ही १९७० और १९८० के दशक में हवाई जहाज की हाइजैकिंग कैसे आतंकियों का ज़रिया बन गया था, ये बताया जाता है। पर मल्होत्रा और उसके परिवार की पार्श्वभूमि समझाने में फ़िल्म खींचती जाती है और अनुमानित अंदाज़ में बढ़ती है। उसकी ट्रेनिंग के हिस्से में कुछ अच्छी चीज़ें उभरकर आयी हैं, जिसका रचनात्मक इस्तेमाल किया जाना चाहिए था। बजाय इसके, एक दृश्य में मल्होत्रा उसे काम पर रखनेवाले इंसान को इंटेलिजेंस एजेंसी में कैसे काम चलता है ये बता कर आत्मसंतुष्टि का प्रदर्शन करता है।
उत्तरार्ध में हाईजैक की कहानी खुलने लगती है और हम सोचते हैं के अब फ़िल्म तेज़ होगी और हमें रोमांच देखने मिल सकता है। पर हवाई जहाज में बैठे लोगों की जैसे इन्हे कोई फ़िक्र ही न हो। क्लाइमैक्स में एक्शन ज़ोर पकड़ता है, पर वो भी ज़बरन लगता है। ३डी में अगर कुछ अच्छा है तो वो है रेगिस्तान में उठे तूफान का दृश्य जो और अच्छा हो सकता था।
बेल बॉटम में जहाँ देखो वहाँ अक्षय कुमार हैं। स्लो मोशन एंट्री, बेल बॉटम का स्वैग और एंट्री का म्युज़िक। उनके अलावा यहाँ किसी और को मुश्किल से ही कुछ करने को मिला है। वाणी कपूर पत्नी की भूमिका में और हुमा कुरैशी एजेंसी का दुबई कॉन्टैक्ट, बस इन्हे अच्छे ट्विस्ट मिले हैं जो उनके किरदार का महत्त्व थोड़ा बढ़ाते हैं। पर कहानी ऐसे घूमती है के जब इनका राज़ खुलता है, तब वो भी नीरस लगता है।
आदिल हुसैन अपने साथ अक्षय कुमार होने के बावजूद हर दृश्य में अपनी ओर ध्यान बटोरने में कामयाब होते हैं। लारा दत्ता श्रीमती गांधी के मेक-अप में जकड़ी नज़र आती हैं और बिना किसी हावभाव के अभिनय के साथ दबाव में ही लगती हैं।
कुछ अच्छी चीज़ें भी हैं, जैसे के वाणी कपूर का अपनी साँस के साथ का रिश्ता, मल्होत्रा और संतुक का रिश्ता और एजेंट्स के बीच के मज़ेदार पल। पर अक्षय कुमार के हावभाव सर्वज्ञ, मुझे सब पता है, इस तरीके के हैं, और बस वही फ़िल्म के अंत में याद रहता है।
प्रॉडक्शन और कॉस्च्यूम डिज़ाइन में गड़बड़ी दिखाई देती है। एक तरफ हर वक़्त बेल बॉटम और रेट्रो लुक नज़र आता है, पर वाणी कपूर के बाल और मेक-अप भविष्य के लगते हैं। वैसे ही मल्होत्रा अपनी माँ के लिए एयर कंडीशनर नहीं ले सकता इस बात पर इतना ज़ोर दिया गया है, वहीं दूसरी ओर उसका बाकि घर शानदार दिखता है।
ऐसी कई चीज़ें थी जिससे ये फ़िल्म एक अच्छा थ्रिलर बन सकती थी। पर ये मौका गवा कर खिलाडी कुमार हमें देशभक्ति, भारत का दुनिया में क्या स्थान है, महिलाओं का सम्मान, इन बातों पर ज्ञान देते हैं और साथ ही 'इस बार, उनकी हार' ये संवाद भी जड़ देते हैं, जो शायद अगले चुनाव की घोषणा में सुनाई दे सकता है।
मुम्बई में अभी भी थिएटर्स नहीं खुले हैं, पर बाकि शहरो में ५०% दर्शकों की मर्यादा के साथ फ़िल्म थिएटर्स में प्रदर्शित हुई है। अब फैन्स इस फ़िल्म को देखने थिएटर्स में आते हैं या नहीं, ये देखना रंजक होगा, क्योंकि ये फ़िल्म सिर्फ अक्षय कुमार के कट्टर फैन्स ही बर्दाश्त कर पाएंगे।
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