Sonal Pandya
मुम्बई, 11 Apr 2020 12:00 IST
रंजन चांदेल द्वारा निर्देशित ये झी५ फ़िल्म छोटे शहरों की आम हिंदी फ़िल्मों की तरह ही है, जिसमे अपराध जगत के बीच पनपी प्रेमकहानी नज़र आती है।
एक बिगड़ा हुआ युवा। एक गूढ़ युवती। एक खतरनाक गैंगस्टर और निषिद्ध माना गया प्रेम। इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, में बसी ये कहानी इन्ही सब चीज़ों से बुनी गयी है। वैसे, ऐसी कहानी हम कई बार देख चुके हैं।
इसमें अगर कुछ अलग है तो मुख्य जोड़ी, आदित्य रावल (अभिनेता परेश रावल और अभिनेत्री स्वरुप संपत के बेटे) और शालिनी पांडे। पांडे ने अपना फ़िल्मी करिअर तेलुगु फ़िल्म अर्जुन रेड्डी (२०१७) से शुरू किया था। मेरी निम्मो (२०१८) में भी उन्होंने छोटी भूमिका निभाई थी। बम्फाड द्वारा ये मुख्य जोड़ी हिंदी फ़िल्मों में प्रवेश कर रहे हैं।
आदित्य ने नासिर जमाल की भूमिका निभाई है। पांडे नीलम की भूमिका में हैं, जो के एक प्यारी लेकिन बिंदास लड़की है। नासिर को नीलम पसंद आती है। जब वो उसके प्यार में दीवाना हो जाता है, तब उसे पता चलता है के वो गैंगस्टर जिगर फरीदी की रखैल है। फरीदी को वैसे भी नासिर की बढ़ती हिम्मत पसंद नहीं। विजय वर्मा ने फरीदी की भूमिका निभाई है।
नासिर और नीलम लखनऊ भाग जाते हैं और वहाँ अपनी ज़िंदगी बसाने का प्रयास करते हैं, पर मुश्किलें उनका पीछा नहीं छोड़ती। जब कहानी इलाहबाद में वापस लौटती है, तब जो भी इसमें मौजूद है सब को बहुत कुछ खोना पड़ता है।
अनुराग कश्यप द्वारा प्रस्तुत बम्फाड आदित्य रावल के लिए एक आश्वासक शुरुवात है। नासिर उर्फ़ नाटे की भूमिका में उनका किरदार धीरे धीरे सामने आता है। शहीद जमील (विजय कुमार) जैसे प्रभावी नेता के बेटे के रूप में नासिर घमंडी और गर्म मिजाज है, लेकिन उसे ये नहीं पता के उसका ये स्वभाव उसके विनाश के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
पांडे अपनी पहली बड़ी हिंदी भूमिका में सहज हैं। पर नीलम उसके इर्द गिर्द चीज़ों को उनकी गति से होने देती है, जिससे उन्हें दबंग होने का मौका नहीं मिलता। पहले यूँ लगता है के नीलम उन दोनों के रिश्ते में सबसे ज़्यादा वास्तविकता के करीब है, पर बाद में हमें पता चलता है के वो सच्चे प्यार की प्यासी है और उसी वजह से जो घटनाये घट रही हैं, उसमे वो बहती चली जाती है।
वर्मा को गैंगस्टर के रूप में कम इस्तेमाल किया गया है, वहीं जतिन सरना नाटे के धूर्त दोस्त के रूप में कहानी में आते जाते रहते हैं। दोनों कलाकारों ने अपना काम बेहतरीन किया है, पर फिर भी इससे फ़िल्म ऊपर नहीं उठती।
इसके साथ ही यहाँ चुनाव और नाटे के हिन्दू दोस्त टोटा (शिवम मिश्र) की सहपाठी वालिया (सना अमिन शेख) को पटाने की होड़, ऐसे कुछ उप-कथानक भी हैं। ये सब कुछ नाटे, नीलम और फरीदी के त्रिकोण को पूरा करती हैं।
विशाल मिश्र का संगीत अच्छा है, पर प्रशांत पिल्लई का पार्श्वसंगीत इस फ़िल्म में अधिक गहरा असर छोड़ता है।
रंजन चांदेल, जिन्होंने कश्यप की मुक्काबाज़ (२०१८) लिखी थी, यहाँ इस माहौल को सही तरह से पकड़ते नज़र आये हैं। पर उन्होंने वही पुराने पैंतरे और तरकीबें इस्तेमाल की हैं जो कई फ़िल्मों में हम देख चुके हैं। आंतरजातीय विवाह, क्रूरता, पौरुष का दिखावा, राजनीती और कानून व्यवस्था का खेल ऐसी कई चीज़ें पहले भी कई बार नज़र आयी हैं।
अगर कुछ नयापन नज़र आता है तो वो है फ़िल्म की एंडिंग, जो के इतनी हिंसा होने के बाद भी आशा की किरण को बनाये रखती है।
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