Sukhpreet Kahlon
मुम्बई, 26 Jul 2019 14:00 IST
रोहित जुगराज द्वारा निर्देशित अर्जुन पटियाला एक स्पूफ कॉमेडी फ़िल्म है, मात्र कमज़ोर स्क्रिप्ट की वजह से फ़िल्म अपने हास्य धमाके के दावे पर खरी नहीं उतर पाती।
एक अतिउत्साहित स्क्रिप्ट रायटर एक उदासीन निर्माता को कहता है के उसके पास एक ऐसी स्क्रिप्ट है जिसमे कॉमेडी, एक्शन, रोमांस, ज़रूरी आयटम नंबर , ५ विलन हैं जिससे हीरो को कारनामे दिखाने का पूरा मौका मिलेगा। पर रोहित जुगराज की अर्जुन पटियाला (२०१९) में कुछ ऐसी चीज़ों की कमी है जिससे किये हुए दावे पर ये फ़िल्म खरी नहीं उतर पाती।
दिलजीत दोसांज और क्रिती सैनन अभिनीत यह फ़िल्म पुलिसवाले दोस्तों की फ़िल्में और आम फ़िल्मों पर बनाई गई स्पूफ फ़िल्म है। जेम्स बॉन्ड फ़िल्म की शैली में क्रेडिट शुरू होते हैं और यह स्पूफ शुरू होता है।
जब अर्जुन पटियाला (दिलजीत दोसांज) का पुलिस बनने का सपना पूरा होता है, तो वो शहर से अपराध का नामोनिशान मिटाने के लिए तैयार हो जाता है। ओनिडा सिंह (वरुण शर्मा), पुलिस का झुंड और विक्टोरिया कौर नामक एक भैंस उसका इस मिशन में साथ देते हैं।
सब कुछ सही चल रहा होता है। अर्जुन को पत्रकार ऋतु रंधावा (क्रिती सैनन) के रूप में उसका प्यार मिल जाता है। पर जब ऋतु को अर्जुन के प्लान के बारे में पता चलता है, चीज़ें बदलने लगती हैं। अर्जुन के प्लान के अनुसार गुंडों के बीच आपस में गैंगवार होगा और उससे शहर से अपराध का खात्मा हो जाएगा।
स्थानिक विधायक प्राप्ति मक्कड़ (सीमा पाहवा) अपने फायदे के लिए परिस्थिति को तोड़ मरोड़ कर इस्तेमाल करती है। डीएसपी गिल (रोनित रॉय) अकेला ऐसा बंदा है जो पूरी परिस्थिति को नियंत्रण में रख रहा है।
एक स्पूफ होने के कारण यहाँ दृश्यों के पीछे क्या होता है ये भी दिखाया गया है। एक दृश्य में एक्टर के सुरक्षा के लिए लगे बेल्ट दिख रहे हैं और सूचना दी जाती है के छोटे बजट के कारण ऐसा हो रहा है। एक समय स्क्रिप्ट रायटर कहता है, "और किसी भी वजह बिना यहाँ इस समय एक आयटम नंबर पेश किया जा रहा है" और उसके तुरंत बाद सनी लिओनी का गाना स्क्रीन पर शुरू होता है।
फ़िल्म के पूर्वार्ध में कुछ जगह मज़ा आता है और वो आपको बांध कर रखने में भी कामयाब हुआ है, पर उत्तरार्ध में कहानी धीरे धीरे अपनी पकड़ छोड़ती है और फिर ज़बरदस्ती मज़ा और व्यंग बनाने की कोशिशे साफ़ नज़र आती है। फ़िल्म के कुछ क्षण ऐसे ज़रूर हैं जो मज़ेदार हैं, पर अगर इस फ़िल्म को सोच समझकर लिखा गया होता, तो इसका रूप कुछ और होता।
निर्देशक रोहित जुगराज की पिछली फ़िल्में सरदारजी (२०१५) और सरदारजी २ (२०१६) को देख कर इतना तो पता चलता है की कॉमेडी पर उनकी पकड़ अच्छी है। इसलिए निराशा होती है के एक अलग कल्पना को लेकर बनाई गई फ़िल्म इतनी बेतुकी है की इसकी कड़ियां जुड़ नहीं पाती।
दोसांज ने स्क्रिप्ट के अनुसार अपना सर्वोत्तम देने की कोशिश की है और सैनन अपनी भूमिका में ठीक ठाक हैं। दोसांज के लिए ये फ़िल्म ज़रूर मायने रखती है। पंजाबी फ़िल्मों में उनका काफ़ी नाम है, पर हिंदी फ़िल्मों में अभी वे उस मुकाम तक नहीं पहुँच पाए हैं जहाँ फ़िल्म की सफलता के अहम घटक माने जाएं।
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