Sonal Pandya
मुम्बई, 13 Mar 2020 7:30 IST
होमी अडजानिया द्वारा निर्देशित इस पारिवारिक कहानी में इरफ़ान खॉं एक अच्छे पिता की भूमिका निभा रहे हैं जो अपने बेटी के विदेश में शिक्षा के सपने को पूरा करने के लिए जूझ रहा है।
हिंदी मीडियम (२०१७) के लिए इरफ़ान खॉं को सर्वोत्तम अभिनेता का उनका पहला फ़िल्मफ़ेअर पुरस्कार मिला। फ़िल्म में खॉं पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक में रहनेवाले अमीर पिता की भूमिका में थे जो अपनी बेटी पिया को अंग्रेज़ी मीडियम स्कुल में पढ़ाना चाहता है। खॉं का किरदार नया नया अमीर बना है और उसकी पार्श्वभूमि को देखते हुए उसे हमेशा निचा देखा जाता है, पर वो हर संभव प्रयास से अपनी बेटी का भविष्य सुरक्षित करने की होड़ में लगा हुआ है।
पहले फ़िल्म की भांति अंग्रेज़ी मीडियम (२०२०) में भी कहानी ऐसे ही एक विषय को उठाती है। पर उदयपुर, राजस्थान, से लन्दन का ये सफर विचित्र कथासूत्र और नए किरदारों से भरा है, जिसमे जल्दबाज़ी नज़र आ रही है। पर इस विचित्रता पर इरफ़ान खॉं की एकल पिता की भूमिका हावी हो जाती है, जिससे इन उलझनों पर आपका ध्यान नहीं टिकता।
चंपक बंसल (इरफ़ान खॉं) एक मिठाई की दुकान चलाता है। उसका परिवार काफी बड़ा है। अपनी बेटी तारिका (राधिका मदान) के साथ वो उदयपुर में रहता है। थोड़ा पुराने ख्यालों वाला चंपक अपनी बेटी पर जान छिड़कता है और उसके लिए वो कुछ भी कर सकता है। इसी लिए जब वो इंग्लैंड के ट्रूफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ने की इच्छा ज़ाहिर करती है, तो वो मान जाता है।
तारिका एक शिक्षक की सहायता से दिन रात एक कर पढ़ती है। उसे पहली तीन लड़कियों में चुना जाता है। पर चंपक अनजाने में प्रिंसिपल की स्कॉलरशिप देने की बात को सार्वजनिक विवाद बना देता है और तारिका का विदेश में पढ़ने का सपना बिखर जाता है।
अब तारिका के लंदन के सपने को पूरा करना चंपक की ज़िम्मेदारी बन जाती है। उसके रिश्तेदार गोपी (दीपक डोब्रियाल) और गज्जू (कीकू शारदा) की मदद से वो तारिका को लंदन ले जाता है। पर अंग्रेज़ी की समस्या, ऊपर से विदेश में आर्थिक और कानूनन रहने की समस्या उसकी अड़चने बन जाती हैं।
भावेश मंडालिया, गौरव शुक्ल, विनय छवाल और सारा बोदीनार ने फ़िल्म का स्क्रीनप्ले लिखा है। चंपक और तारिका की जद्दोजहद के साथ भारत से विदेश के सफर में कई सारे किरदारों को समेटना लेखकों को अनिवार्य था। इसके चलते स्क्रीनप्ले फूलता गया, कई तर्क जैसे के एक दिन में किसी का इंग्लैंड पहुंचना, ये सब भावनिकता को बढाने के लिए दरकिनार कर दिए गए।
पर इन सबके बावजूद कारवाँ (२०१८) के बाद इरफ़ान खॉं की हिंदी फ़िल्मों में वापसी खूबसूरत है। कुछ दृश्यों में वे कुछ थके थके से ज़रूर लगते हैं, पर पिता की भूमिका में उनका अभिनय उतना ही वास्तविक और सच्चा है। डोब्रियाल के साथ मिलकर वे बेहद मज़ा लाते हैं।
आज के भयग्रस्त स्थिति में स्वच्छता पर किया गया व्यंग सटीक बैठता है और बंसल परिवार का हरदम मुकदमे के लिए तैयार रहना भी कुछ अच्छे पल देता है। मदान भी अपने किरदार में अच्छी लग रही हैं।
बाप-बेटी के रिश्ते में बढ़ती दरारों की वजह से मध्यांतर के बाद फ़िल्म की ऊर्जा थोड़ी कम होती है। डिम्पल कपाड़िया और करीना कपूर खॉं को भी यहाँ अधिक कुछ करने को नहीं हैं।
अडजानिया की फ़िल्म फिर भी दर्शकों को पकड़ कर रखती है, जिसकी मुख्य वजह इरफ़ान खॉं का फ़िल्म में होना है। सचिन-जिगर के बेहतरीन संगीत का भी इस में अच्छा योगदान है। गाने अधिकतर पार्श्वभूमी में और मोन्टाजस में नज़र आते हैं।
पहली फ़िल्म में अच्छी स्कुल में बच्चों को दाखिला दिलाने के लिए क्या क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं, इस बारे में दर्शकों की आंखे खोलने का प्रयास किया गया था। अंग्रेज़ी मीडियम में इसी बात को बाप-बेटी के रिश्ते का सहारा लेते हुए दूसरे परिप्रेक्ष्य में दिखाने का प्रयास किया गया है। पर फ़िल्म इस समस्या के करीब पहुंचने में असफल रही है। यहाँ सिर्फ इरफ़ान खॉं और दीपक डोब्रियाल का प्रदर्शन हमें याद रहता है।
लेकिन इरफ़ान खॉं को फिर एक बार बड़े परदे पर देखने का आनंद फ़िल्म की खामियों को नज़रअंदाज़ करने के लिए काफ़ी है।
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