Shriram Iyengar
मुम्बई, 22 May 2021 17:04 IST
प्रयोगशील और दृश्यात्मकता से भरपूर होने और अच्छे अभिनय प्रदर्शन के बावजूद ९९ सॉन्ग्स बहुत जल्द बहुत कुछ करने के प्रयास में लड़खड़ाती है।
फ़िल्म के एक दृश्य में काउंसलर बनी मनीषा कोइराला कहती हैं के संगीत इस दुनिया का बचा हुआ आखरी जादू है। इससे ये तो सिद्ध हो जाता है के ये कहानी एक संगीतकार की लिखी है। ए आर रहमान के पहले स्क्रीन राइटिंग को भारी भरकम संगीत का साथ मिला है ताकि संगीतकार के आदर्शवादी सपनों को सहारा मिल सके, पर कहानी बेवजह बहुत ज़्यादा पेचीदा और घिसे-पिटे मोड़ से बढ़ती है।
जय (इहान भट्ट) एक होनहार संगीतकार है जो सोफी (एडिलसि वर्गस) से प्यार करता है। सोफी मूक है, होशियार है। कहानी में उसका स्थान बहुत कम है, लेकिन वो जय की प्रेरणा है और उसका जुनून भी। संगीत दोनों को जोड़ता है, लेकिन सोफी के पिता (रंजीत बारोत) किसी संगीतकार के साथ अपने बेटी की शादी करने के खिलाफ हैं। तब तक नहीं जब तक वो सफलता न हासिल कर ले। "सोफी के बारे में सोचने से पहले एक या सौ गाने लिख दो जो दुनिया बदल दें," जय के लिए वे ये चुनौती रखते हैं। इस तरह सपने को हासिल करने का सफर शुरू होता है।
जय का सफर उसे मुश्किल से मुश्किल परेशानियों में ले जाता है और सोफी से दूर भी। वो शिलॉन्ग, मेघालय, में पहुँचता है जहाँ वो शीला (लिसा रे) से संगीत सीखता है। शीला जैज संगीत के लिए जानी जाती है। इससे जय को मदद तो होती है, पर उसकी मुश्किलें और भी बढ़ती हैं। सौभाग्यवश, इस पूरे सफर में संगीत उसका सच्चा साथी होता है।
कहानी में कई चीज़ें ऐसी हैं जो पहले भी बहुत बार देखि जा चुकी हैं, जैसे के संघर्ष करता कलाकार इस स्वार्थी और भौतिक सुखों के पीछे पागल दुनिया से लड़ रहा है, जो उसके सपने या प्यार के आड़े आ रही है, एक दोस्त जो ग़लत फैसला लेता है, एक अच्छे दिल की गूढ़ औरत, इत्यादि।
इहान भट्ट ने प्रतिभावान और नेक जय की भूमिका को संजीदगी से निभाया है, जो कला के लिए खुद को जला रहा है। जय के दोस्त पोलो की भुमिका में तेंज़िन डालहा ने उनका उतना ही अच्छा साथ दिया है। एडिलसि वर्गस के डिज़ाइनर और डान्सर के किरदार को मूक दिखा कर उनके लहज़े का प्रश्न ही दरकिनार कर दिया गया है। इससे किरदार के कुछ भाव ज़रूर छीन लिए गए हैं और उसे सहानुभूति भी मिली है।
फ़िल्म जब तक सपने के लिए लड़ रहे जय के साथ है, फ़िल्म का प्रवाह सही लगता है। शिलॉन्ग में उसका जाना और किसी गूढ़ संगीत शिक्षिका शीला से मिलना, ये कहानी का रोचक हिस्सा कहा जा सकता है।
कुछ भारतीय सांगीतिक शोज़ में ऑस्कर पीटर्सन और जॉर्ज गर्शविन के बारे में बातें की जाती हैं। संगीत के बनने की प्रक्रिया के कुछ दृश्य यहाँ देखे जा सकते हैं। जो संगीत की बारीकियों से परिचित हैं वे इसे जान सकते हैं। शीला और जय के बीच के संवाद से इसका पता चल जाएगा। वे संगीत को पूरा करने के लिए नोट्स को जोड़ते रहते हैं। निर्देशक विश्वेश कृष्णामूर्ति और लेखक ए आर रहमान, दोनों संगीतकार हैं जो के इस तरह के चीजों से परिचित हैं।
कहानी में अगर कुछ कमी है तो वो है भावनिकता की गहराई और किरदारों के खुलने की। रहमान के सभ्यता के मापदंड के अनुसार उनका किरदार जय शराब नहीं पीता, स्मोक नहीं करता या किसी अन्य बुराई का शिकार नहीं है। किरदार में किसी कमी या गौरव का न होना उसे किसी को जोड़ कर देखने से रोकता है। अगर किरदार से भावनिक रूप से कोई रिश्ता न बनता हो, तो कहानी का विफल होना स्वाभाविक है।
दूसरी ओर जय के संगीत से घृणा करनेवाले पिता (दिवाकर पुंडीर) को हम हमारे इर्द गिर्द के किसी भी आम इंसान के साथ जोड़ कर देख सकते हैं, जिसमें कुछ खामियां हैं।
कई सारी भारी और आदर्शवादी चीज़ें कहानी और स्क्रीनप्ले में डाली गयी हैं। उत्तरार्ध में कई जगहों पर दृश्यात्मक प्रस्तुतीकरण में वास्तविक चीज़ें फैला दी गयी हैं, जिससे इसका बोझ सा लगने लगता है और खास कर फ़िल्म के अंत में वो अविश्वसनीय लगता है।
स्क्रीनप्ले का सुस्त सा चलना भी एक समस्या है। संगीतकार के कल्पना का अमूर्त स्वभाव हम समझ सकते हैं, पर ऐसे कई सारे दृश्यात्मक संकेत हैं जिनके लिए अच्छी लिखावट का होना आवश्यक था। फ़िल्म का उच्च दर्ज़े का प्रॉडक्शन और भव्य थीम संगीत फ़िल्म को ऊपर उठाने में मददगार साबित होते हैं। पर कहानी में नाट्यमयता का अभाव फिर भी खटकता है।
रहमान का संगीत निःसंदेह अच्छा है। वीएफएक्स, सिनेमैटोग्राफी और अभिनय फ़िल्म को बांधे रखते हैं। विश्वेश के निर्देशन में एक कलाकार की सवेंदना कहानी को प्राप्त हुई है, जिसमें दृश्यात्मक संकेत भी देखें जा सकते हैं। संगीत एक जादुई ताकत ज़रूर हो सकती है, पर फ़िल्म तभी अच्छी बनती है जब सभी तत्व सही तरह से एक साथ जुड़ते हैं।
९९ सॉन्ग्स नेटफ्लिक्स और जिओ सिनेमा पर उपलब्ध है।
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