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Review Hindi

३७७ अब नॉर्मल रिव्ह्यु – एलजीबीटीक्यू अधिकार पर बनी फ़िल्म का उद्देश्य सही मगर दिशा भटकी

Release Date: 19 Mar 2019

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Sonal Pandya

फारूक कबीर द्वारा लिखित एवं निर्देशित इस डिजिटल फ़िल्म की शुरुवात आश्वासक है, मगर धीरे धीरे वो अलग बहाव में भटकने लगती है।

एक बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय बस कुछ क्षणों में होने को है और समाजसेवक, आरोपी तथा वकील, जो इस निर्णय के लिए जूझ रहे थे, बस इंतज़ार के अलावा कुछ नहीं कर सकते।

फारूक कबीर की यह फ़िल्म काफ़ी उलझी हुई है। सितम्बर २०१८ में दिए गए एक ऐतिहासिक निर्णय के बारे में ये फ़िल्म बात करती है, जब धारा ३७७ को असंवैधानिक करार दिया गया था।

डेढ़ घंटे की इस फ़िल्म में समाज के विभिन्न अंग के किरदार नज़र आते हैं। केशव (सिड मक्कर) एक अमीर लड़का है जिसका अपना एक फ्रेंड सर्कल है, वहीं आरिफ ज़फर (झीशान अयूब) लखनऊ से भरोसा ट्रस्ट नामक एनजीओ चलाता है और धारा ३७७ के तहत उसे जेल भी जाना पड़ता है। फ़िल्म उनके अस्तित्व और पहचान के संघर्ष को सामने लाती है, हालांकि उनके परिवार की तरफ से उन्हें सहयोग मिलता है।

साथ ही फ़िल्म में और दो समानांतर कहानियाँ चलती हैं। पल्लव (शशांक अरोरा) और शाल्मली (मानवी गागरू) की इन कहानियों में एक समझदारी के अंत पर रुकती है तो दूसरी नकारात्मक अंत पर छोड़ देती है।

एक ऐसी कहानी जिसे एलजीबीटीक्यू समाज के समान अधिकार की कानूनन लड़ाई के संघर्ष पर ध्यान देना शायद आवश्यक था, ३७७ अब नॉर्मल कई सारे मुद्दों को स्पर्श करती है। कुछ किरदारों को पहले सामने लाया गया और बाद में भुला दिया गया है, जैसे के अंजू महेंद्रु के मेहरुनिसा के साथ होता है।

पर मुश्किल ये है के यहाँ दो अलग फिल्में नज़र आती हैं। एक इन अलग अलग व्यक्तित्वों की है जो कानूनी लड़ाई के बारे में कुछ नहीं कहती। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से पूर्व की घटनाओं का अपना महत्त्व है क्यूंकि उससे आज भी समाज में मौजूद होमोफोबिया को समझा जा सकता है। इससे धारा ३७७ को गैरआपराधिक घोषित करने के निर्णय का महत्व बढता है।

इस विषय पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता थी, ऐसा महसूस होता है। हर किरदार की कहानी महत्वपूर्ण है, पर वो शायद किसी वेब-सीरीज़ में अधिक विस्तृत बताई जा सकती थी, ना के किसी फ़िल्म में। साथ ही कलाकारों के अभिनय में भी सातत्य नज़र नहीं आता। कुमुद मिश्र और मोहन कपूर, जो के दोनों पक्ष के वकील बने हैं, अपना प्रभाव छोड़ते हैं।

३७७ अब नॉर्मल की प्रॉडक्शन वैल्यू भी कमज़ोर है। कहानी मुम्बई, दिल्ली और लखनऊ में घटती है पर सभी जगहे एक जैसी दिखती हैं। अजीब बात ये है के कुछ दृश्य जो ट्रेलर में मौजूद थे, उन्हें फ़िल्म में इस्तेमाल नहीं किया गया।

इस बात का खेद होता है के सही उद्देश्य के बावजूद फ़िल्म अपनी राह से भटक जाती है। हम किसी और वेब-सीरीज़ या फ़िल्म की राह देखेंगे जो ये हक़ की लड़ाई अवश्य दर्शाएगी।

 

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