हालाँकि किदार शर्मा की यह बेहतरीन फ़िल्म खो चुकी है, लेकिन फ़िल्म के एक बचे हुए फोटो से एक दृश्य की याद ताज़ा हो जाती है, जिस पर ८० वर्ष पहले सेंसर की कैंची चली थी।
संभाल सको तो संभालो – चित्रलेखा (१९४१) का वह दृश्य जिसने सेंसर के होश उड़ा दिए
मुम्बई - 05 Jul 2021 16:11 IST
Updated : 07 Jul 2021 1:45 IST
Sukhpreet Kahlon
देश में फिल्म सेंसरशिप पर बहस तेज होने के साथ यह याद रखने योग्य है कि यह लड़ाई तब से चल रही है जब से सिनेमा ने भारत में प्रवेश किया। उदाहरण के लिए ८० साल पहले एक फ़िल्म थी चित्रलेखा (१९४१), जिसके एक कामुक दृश्य ने सेंसर बोर्ड को परेशान कर दिया था।
किदार शर्मा द्वारा निर्देशित और मेहताब, नंद्रेकर, राम दुलारी और मोनिका देसाई द्वारा अभिनीत चित्रलेखा भगवती चरण वर्मा के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित थी। सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल का समय इस उपन्यास में दर्शाया गया है। अभिनेता भारत भूषण की यह पहली फ़िल्म थी।
ईसवी पूर्व तीसरी शताब्दी में इस फ़िल्म की कहानी घटती है। ये एक आध्यात्मिक थीम की फ़िल्म है। बेहद खूबसूरत और प्रसिद्ध नर्तकी चित्रलेखा की ये कहानी है। बीजगुप्ता एक अमीर और अच्छा इंसान है, पर उसे शराब और स्त्री की लत लगी है और चित्रलेखा के प्रति वो पागल हुए जा रहा है, हालाँकि उसकी शादी कहीं और तय हो चुकी है।
बीजगुप्ता के गुरु कुमारगिरी को अपने शिष्य को उसकी भावी पत्नी के पास वापस लाने और चित्रलेखा के महत्त्व को कम करने की ज़िम्मेदारी दी जाती है। कठोर तपस्वी कुमारगिरी चित्रलेखा को उसके धार्मिक कर्तव्यों के बारे में बताते हैं और वह धीरे-धीरे उनकी बातों पर अमल करती है। आखिरकार वह अपने पेशे को त्याग देती है, शील और धर्मनिष्ठ जीवन जीने का फैसला करती है और कुमारगिरी की शिष्या बन जाती है।
पर इन सब में कुमारगिरी चित्रलेखा को पसंद करने लगते हैं और उसे वश में करने की कोशिश करते हैं। फ़िल्म के अंत में योगी कुमारगिरी की कोशिशें नाकाम होती हैं और चित्रलेखा और बीजगुप्ता फिर से मिल जाते हैं।
किदार शर्मा ने शूटिंग में खुद को इस कदर झोंक दिया के उन्होंने पूरे स्क्रीनप्ले का बार-बार पूर्वाभ्यास करने का निर्णय लिया। कलाकार इससे नाराज़ थे। शर्मा ने संगीतकार खाँसाहब ज़न्दे खाँ को भी पूरे संगीत को राग भैरवी में बांधने को कहा, हालाँकि संगीतकार उस बारे में उतने आश्वस्त नहीं थे।
फ़िल्म के एक दृश्य ने मगर ज़बरदस्त चर्चा बटोरी। स्नान के इस कथित दृश्य द्वारा चित्रलेखा की कामुकता और उसके आकर्षण को दर्शाना था। फ़िल्म इतिहासकार ज़फर आबिद बलानी ने मेहताब के साथ अपनी बातचीत साँझा की, जहाँ उन्होंने इस दृश्य का विस्तार से वर्णन किया था।
इस दृश्य की परिकल्पना राजा रवि वर्मा की कलाकृति से प्रेरित थी। इस दृश्य में मेहताब इस तरह साड़ी पहने दिखती हैं जिसे सिर्फ नाम के लिए पहनना कहा जा सकता है। वे एक कुएं से पानी खींच कर खुद पर ही उंडेलती दर्शायी गयी थीं। इन शॉट्स में उनके स्नान के कई क्लोज-अप थे।
दुःख की बात ये है कि फ़िल्म आज उपलब्ध नहीं है, पर बलानी ने अपने निजी संग्रह से एक दुर्लभ, अप्रकाशित तस्वीर साँझा की है। मेहताब इस मुद्रा में यहाँ कम फोकस में नज़र आ रही हैं। गुमनामी से छीने गए एक पल का प्रतिनिधित्व करती ये तस्वीर फ़िल्म के इतिहास के इस हिस्से का एक मात्र सबूत है।
इस सीन को लेकर जहाँ काफी उत्सुकता थी, वहीं उस वक्त के सेंसर बोर्ड का ध्यान भी इस ओर आकृष्ट हुआ था। भारत में फिल्म सेंसरशिप की शुरुआत १९१८ के सिनेमैटोग्राफ एक्ट के साथ हुई, जिसने देश भर के विभिन्न शहरों में सेंसर बोर्ड स्थापित किए।
ब्रिटिश राज में सेंसर के लिए राष्ट्रवाद एक चिंता का विषय था, पर साथ ही महिलाओं के शरीर के प्रदर्शन के बारे में भी कुछ चिंता थी, जो समय के साथ बढ़ती चली गयी। १९२० और १९३० के दशक की कई फिल्मों में चुंबन दृश्य हुआ करते थे, जिन्हें किसी आक्षेप का सामना नहीं करना पड़ता था। लेकिन १९४० के दशक से ये स्थिति बदलनी शुरू हई।
राजनीतिक रूप से आवेशित माहौल के कारण सेंसर को और कठोर कर दिया गया। पत्रकार उदय भाटिया ने बताया कि १९४३ में बॉम्बे सेंसर ने १,७७४ फ़िल्में देखिं जिनमें से केवल २५ में प्रदर्शन से पहले कुछ बदलाव की आवश्यकता थी। १९४८ में कुल ३,०९९ फ़िल्मों में ये संख्या बढ़कर ४६४ हो गई। चित्रलेखा उन शुरुवाती फ़िल्मों में से एक थी जिसे सेंसर बोर्ड से मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
आखिरकार इस दृश्य को एक अन्य स्नान दृश्य से बदल दिया गया जिसमें मेहताब को एक टब में कमल के फूल के साथ अपने ऊपर पानी डालते हुए दिखाया गया था। 'द वन एंड लोनली किदार शर्मा' किताब में फ़िल्मकार ने बताया, "इस फ़िल्म में, पहली बार बड़े परदे पर स्त्री सुंदरता को इतनी खूबी के साथ दिखाया था, के मिस मेहताब के स्नान दृश्य में अंग प्रदर्शन ना करते हुए भी स्त्री के शारीरिक आकर्षण का आभास निर्माण किया गया।"
शर्मा को इस दृश्य के लिए मेहताब द्वारा कपडे उतारने की आवश्यकता थी और निर्देशक इस माध्यम से क्या दर्शाना चाहते हैं ये समझते हुए उन्होंने इसके लिए स्वीकृति भी दे दी। हालाँकि उन्होंने शर्त रखी के सेट पर कोई नहीं होगा, लाइटिंग और शॉट को डबल (कलाकार की जगह पर कोई और या डुप्लीकेट) के साथ समायोजित किया जाएगा, और निर्देशक द्वारा 'कट' कहने के बाद कोई रीटेक नहीं होगा। दृश्य के लिए केवल मेहताब और शर्मा मौजूद थे, और इसे शूट किया गया। उन्होंने लिखा, "मैं सहमत हो गया और मेहताब ने खूबसूरती से उस दृश्य को प्रस्तुत किया, जिसे समीक्षकों ने भी सराहा और दर्शकों ने पसंद भी किया।"
चित्रलेखा के पहले ट्रायल शो में बड़े लोगों से अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं मिली। युवा बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई को भी सराहना नहीं मिली।
फ़िल्म कलकत्ता के न्यू सिनेमा में रिलीज हुई और वहाँ बुरी तरह से पिट गयी। उस समय के समाचारपत्रों के खबरों के अनुसार जून १९४१ के अंत में बॉम्बे के लैमिंगटन सिनेमा में प्रदर्शित होने के लिए तैयार इस फ़िल्म का प्रदर्शन अचानक आयी मुश्किलों और शहर में चल रही गड़बड़ी के कारण देकर आगे ढकेल दिया गया। फिल्म अंततः ५ जुलाई को एडवर्ड और लैमिंगटन टॉकीज में प्रदर्शित हुई और दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने वाले संगीत और गीतों के साथ रातोंरात सनसनी बन गई। फ़िल्म के बेहतरीन अभिनय, संगीत, सुंदरता और विषय वस्तु की तहे दिल से तारीफ की गई।
१९ जुलाई १९४१ के द बॉम्बे क्रोनिकल अखबार की समीक्षा में फ़िल्म के निर्देशन, स्क्रीनप्ले और अभिनय की प्रशंसा की गयी, खास कर मेहताब की चित्रलेखा और ज्ञानी के योगी की। "शर्मा ने चित्रलेखा का निर्देशन किया है और अपने हमेशा की सजगता के साथ इसे संजोया है," समीक्षक ने लिखा। "परिदृश्य-लेखन में उनके कौशल के एक उदाहरण के रूप में चित्रलेखा में जब संत पहली बार चित्रलेखा से मिलता है और जब वो उसकी सुंदरता के अधीन होकर आश्रम में चित्रलेखा के प्रति पागल हो जाता है, इन अलग दृश्यों में दर्शाये गए विरोधाभास को देखा जा सकता है।"
यह फ़िल्म शर्मा के लिए निर्णायक साबित हुई, जिन्होंने इसकी सफलता का आनंद लिया लेकिन फिर भी खुद को बेरोजगार पाया। वे कलकत्ता से बॉम्बे चले गए और अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के माध्यम से रणजीत स्टूडियो के प्रसिद्ध चंदूलाल शाह से मिले। चित्रलेखा का उनका बेहतरीन काम देख कर शाह ने उसी समय शर्मा को काम पर रख लिया। शर्मा ने १९६४ में मीना कुमारी और अशोक कुमार के साथ फ़िल्म का रीमेक बनाया, पर उन्होंने खुद कहा के १९४१ की फ़िल्म का जादू वे फिर से हासिल नहीं कर सकें।
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