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शोले के ४५ वर्ष – शोले और मंगेश देसाई की साउंड डिज़ाइन का जादू

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शोले का अभ्यास इस लिए भी होना चाहिए की कैसे किसी फ़िल्म का साउंड पूरी फ़िल्म के साथ एकरूप तथा किरदारों को लेकर खास हो सकता है।

Shoma A Chatterji

रमेश सिप्पी की अज़ीम पेशकश शोले (१९७५) की १५ अगस्त को पैंतालिसवीं सालगिरह है। भारतीय सिनेमा के इतिहास में यह उन चंद फिल्मों में से है जिन्हें बार बार देखा जाता है। बार बार देखने की एक वजह यह अभ्यास भी है कि कैसे एक फ़िल्म की ध्वनि पूरी फ़िल्म से एकरूप होते हुए भी उसके किरदारों के लिए विशेष हो सकती है।

भारतीय सिनेमा के महान ध्वनि डिजाइनर मंगेश देसाई में ये विशेषता थी के वे रचनात्मक रूप से साउंड डिज़ाइन, परिवेश की आवाज़, संगीत और गाने को इस खूबसूरती से एकत्रित पेश करते थे के दर्शकों को एक समग्र भावनिक अनुभव मिलता था। इसमें कोई आश्चर्य नहीं के शोले पहली ऐसी भारतीय फ़िल्म है जिसका साऊंडट्रैक स्वतंत्र रूप से बाज़ार में लाया गया।

सिप्पी, फ़िल्म के लेखक सलीम खाँ और जावेद अख़्तर तथा साऊंड डिज़ाइनर मंगेश देसाई ने मिलकर यह निर्णय लिया था के हर किरदार के लिए एक खास सिग्नेचर ट्यून बनाई जाए। इसमें सबसे भय उत्पन्न करनेवाली ट्यून गब्बर सिंह के किरदार के वक़्त बजती है।

आर डी बर्मन की ७० सदस्यीय ऑर्केस्ट्रा टीम में से बासुदेव चक्रवर्ती ने वायलनचेलो पर यह संगीत बजाया था। यह संगीत दर्शकों में आज भी भय उत्पन्न करता है।

शीर्षक धुन को केर्सी लॉर्ड और भूपिंदर सिंह ने गिटार पर बजाया था, जो बाद में फ्रेंच हॉर्न में तब्दील हो जाती है जब कैमरा जंगल से गुजरने लगता है।

'ये दोस्ती' गाने में सिटी की धुन रखी गयी है, जिससे ख़ुशी, युवापन, दोस्ती और आज़ादी का जोश भर जाता है।

ट्रेन के साथ साथ घोड़ों के दौड़ने का दृश्य बड़ी खूबसूरती से शूट किया गया था और उसे उतने ही बेहतरीन रूप से एडिट किया गया था। इस दृश्य में संजीव कुमार पुलिस अफसर के किरदार में जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेंद्र) जैसे कैदियों को ले जा रहे हैं और तभी डाकुओं का हमला होता दर्शाया गया है।

फ़िल्म के अंतिम दृश्यों में फिरसे घोड़ों के दौड़ने की आवाज़ है, इस समय बसंती अपनी धन्नो को भगा रही है और कह रही है, "चल धन्नो, आज तेरी बसंती के इज़्ज़त का सवाल है," और अंततः वो गब्बर के अड्डे पर पहुँचती है।

यहाँ कई ध्वनि पटल एक दूसरे पर ओवरलैप होते दिखते हैं और साउंड डिज़ाइन का एक उत्तम नमूना यहाँ देखने को मिलता है। बसंती के तांगे का पीछा करते घोड़ों की एक आवाज़ है, वहीं धन्नो के गले में लगी घंटी भी बजती रहती है जो के इस दृश्य में विरोधाभास निर्माण करती है। साथ ही बसंती का आवाज़ भी है जो धन्नो को तेज़ भागने के लिए कह रही है।

देसाई ने फ़िल्म के कुछ साउंड को खास तरह पेश करने के बारे में सोचा था। जैसे के सिक्के को उछालने के दृश्य में उन्होंने सिप्पी को सुझाव दिया था के सिक्के के उछालने की आवाज़ थिएटर में गूंजनी चाहिए। इस इफेक्ट को पाने के लिए साउंड मिक्सिंग के दौरान दीवार के सामने सिक्के को उछाल कर उसे सीढ़ियों से निचे गिरने दिया गया।

फ़िल्म के क्लाइमैक्स में सिक्के के उछालने को अहमियत मिलती है। जय और वीरू में से कौन डाकुओं का सामना करने के लिए रुकेगा और कौन गाँव जाकर मदत ले आएगा, ये उसीसे तय होता है।

जय का माउथ ऑर्गन उसके प्यार की चाहत और ज़िंदगी में ठहराव पाने की लालसा को दर्शाता है। हर रात वो ठाकुर की हवेली में अपने कमरे के बाहर बैठता है और राधा बालकनी में आने के इंतजार में हार्मोनिका बजाता है। राधा ठाकुर की विधवा बहु है। ठाकुर के परिवार की वो एकमात्र सदस्य है जो गब्बर के कहर से बच गयी।

जय हर रोज़ एक ही धुन बजाता है, शायद वो ये एक ही धुन बजाना जानता हो। ये उदासी भरी धुन उसके जीवन की उदासीनता को दर्शाती है और एक विधवा के शांत चेहरे पर उसके जीवन के दुःख का आईना बन कर उभर आती है। ये धुन इस प्रेम कहानी के शोकांत की सूचक है।

बसंती का तांगा उसके विचित्र स्वभाव का स्थायी भाव है। तांगे के खींचने से उसके गति की आवाज़ और बसंती के चाबुक की आवाज़ उसके व्यवसाय को दर्शाते हैं। बसंती एक सशक्त महिला है, जो पुरुष यात्रियों को स्टेशन से गाँव और वापस स्टेशन तक छोड़ने का साहस रखती है।

बसंती की निरंतर बकबक के साथ तांगे की आवाज़ को जोड़ना और धन्नो के गले की घंटी की आवाज़ और घोड़ों के टापों की आवाज़ें, ये सब खुबसुरतिसे रचा गया है। जब बसंती जय और वीरू को पहली बार ठाकुर की हवेली पर ले जाते हुए बोल रही है, तब इस साऊंड का कमाल देखा जा सकता है।

गब्बर सिंह के अड्डे पर क्लाइमैक्स मे बसंती के नृत्य के समय जो साऊंड डिज़ाइन किया गया है, 'जब तक है जान' गाने के बीच में जो बोतल तोड़ी जाती हैं, वो आवाज़ें, यह सभी इस गाने के प्रभाव को बढ़ाते हैं और साथ में यह भी डर लगा रहता है के आगे क्या हो सकता है।

शोले में दो प्रमुख महिला किरदार हैं, बसंती और राधा। बसंती तांगा चलाती है, तो राधा विधवा है। बसंती बहिर्मुखी, बेबाक है, उसे बहुत ज़्यादा बोलने की आदत है। राधा शांत है, अंतर्मुखी, गंभीर, विधवा की सफ़ेद साड़ी पहनेवाली और कभी ना हसनेवाली है और जब तक बहुत ज़रूरी ना हो तब तक ना बोलनेवाली किरदार है।

पर एक छोटे से फ्लैशबैक में हम राधा को भी युवा, रंगों से खेलनेवाली, उछलकूद करनेवाली, खूब हसनेवाली और मस्ती करते हुए बोलनेवाली लड़की के रूप में देखते हैं। शादी के तुरंत बाद आया हुआ विधवा का जीवन और पूरे परिवार की मौत को देखनेवाली लड़की अचानक शांत और मूक हो जाती है। उसका अब मूक हो जाना उसके बड़बोले और मस्तीभरे भूतकाल से बिलकुल विपरीत है, जिसमें विधवा के जीवन का बोझ नज़र आता है। उसकी आवाज़ भी जम चुकी है, शायद इसलिए के पूरे परिवार पर हुए हमले में सिर्फ वो और उसके ससुर दोनों ही बचे हैं। उसके ससुर अपने हाथ गवा चुके हैं और उसके मन में खुद को दोष देने की भावना अब भी है। उसका मूक रहना याने उसने खुद को जीवन भर की दी हुई शिक्षा के समान है।

ठाकुर के मन में प्रतिशोध की भावना तीव्र है लेकिन ज़्यादातर दृश्यों में वो बोलने से बेहतर शांत रहना उचित समझता है। शायद यही इस किरदार की गंभीरता को बढ़ाता है, जिसकी वजह से जय और वीरू हमेशा सतर्क रहते हैं।

सिप्पी और सलीम-जावेद ने हर किरदार के बोलने के ढंग के लिए विशेष मेहनत ली थी। हर किरदार का व्यक्तित्व उसके बोलने के अंदाज़, गहराई, आवाज़ और विशिष्ट संवादों से अलग देखा जा सकता है।

भारतीय फ़िल्मों में संभाषण और संवाद के साउंड पर मुश्किल से ही ध्यान दिया गया है। शोले ने दर्शकों के लिए इसे जागतिक और फ़िल्म के लिए विशेष अनुभव बना दिया। जैसे के, सलीम-जावेद ने अभिनेता जगदीप के साथ बैठ कर उन्हें भोपाली हिंदी में कैसे बोला जाए ये समझाया था, जिसे जगदीप ने इस खूबी के साथ पेश किया के सूरमा भोपाली एक यादगार किरदार बन गया।

गब्बर सिंह की भाषा खड़ीबोली और हिंदी का मिश्रण है। खड़ीबोली केंद्रीय इंडो-आर्यन बोलियों में से एक है जो के दिल्ली और आसपास के भाग में बोली जाती है। जिस तरह जावेद अख़्तर ने इस किरदार को लिखा, गब्बर सिंह और उसकी भाषा मे एक अलग जान सी आ गयी।

असरानी फ़िल्म में १५ मिनिट के लिए आते हैं। 'हम अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर हैं', इस विख्यात लाइन से ये अमर किरदार जाना जाता है। एंग्लो-इंडियन ज़बान में हिंदी बोलते हुए उन्होंने 'हैं' की आवाज़ नाक से निकालते हुए इस किरदार में व्यंग को जोड़ा था।

बाकि मुख्य किरदार साधारण हिंदी में बात करते हैं, ताकि दर्शकों को समझने के लिए ज़्यादा मशक्क़त ना करनी पड़े।

सिप्पी ने कई जगह शांतता बनाए रखी है, जिससे बाकि जगह से आ रहे साउंड को उठाया जा सके। एक उदाहरण दें तो अंधे इमाम (ए के हंगल) जब पूछते हैं के 'इतना सन्नाटा क्यों है भाई?', तब सारा गाँव इमाम के बेटे अहमद (सचिन) की लाश देखने इकठ्ठा हो रहा है। वैसे ही जब ठाकुर बलदेव सिंह छुट्टियों में अपने घर आता है, तो अपने परिवार को लाशों में बिखरा पाता है। हवा के झोंके से इन लाशों से परदे हट जाते हैं, लेकिन उसके पोते की लाश से कफ़न नहीं उठता। संगीत धीरे धीरे ख़तम होता है और सिर्फ हवा की सरसराहट सुनाई देती है।

रेसुल पूकुट्टी, जिन्हें स्लमडॉग मिलियनेयर (२००८) के साउंड डिज़ाइन के लिए ऑस्कर सम्मान से नवाज़ा गया था, उन्होंने कहा, "भारतीय फ़िल्में जितनी देखने लायक हैं, उतनी ही सुनने लायक भी हैं।" शोले से बढ़कर इसका और कौनसा उदाहरण हो सकता है?

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