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द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर रिव्ह्यु – एक बुरी फ़िल्म में महज़ व्यंगात्मक चित्रण से कई ज़्यादा के हकदार हैं मनमोहन सिंग

विजय गुट्टे की फ़िल्म बारीकियों में रंग भरने का प्रयास तो करती है पर नाटकीयता या राजनितिक खेल को दिलचस्प बनाने में असमर्थ रही है।

सच बढ़े या घटे तो सच ना रहे
झूठ की कोई इंतेहा नहीं — कृष्ण बिहारी 'नूर'

फ़िल्मकार ने द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर फ़िल्म से पूर्व सूचना देकर अच्छा ही किया के फ़िल्म के काल्पनिक प्रदर्शन के लिए पात्रों को नाटकीयता प्रदान की गयी है। इसी से पता चल जाता है की विजय गुट्टे निर्देशित फ़िल्म किस शैली में प्रस्तुत होगी।

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व मिडिया सलाहगार संजय बारु के अनुभवों पर आधारित यह फ़िल्म बुरे तरीकेसे लिखी गयी है जिसमे राजनितिक नेता और उनके राजनीती के व्यंगात्मक प्रदर्शन पर जोर दिया गया है।

गुट्टे की यह फ़िल्म युपिए सरकार के १० वर्ष के कार्यकाल के कुछ अंश और क्षणों का एक तरफ़ा प्रदर्शन है जहाँ गुस्सा, राजकीय झगडे, आरोप-प्रत्यारोप तथा भारत को कथित रूप से बरबाद करनेवाली योजनाओं के बारे कहा गया है। इन सब के बिच मनमोहन सिंग (अनुपम खेर), एक ईमानदार सद्गृहस्थ, इस देश की सेवा करना चाहते हैं पर हर पग पर उनको नौकरशाह और पक्षीय राजनीती का सामना करना पड़ता है।

इस फ़िल्म में मनमोहन सिंग को युपिए के कार्यकाल के ट्रैजिक हीरो के रूप में दर्शाया गया है, पर उनकी बुद्धिमत्ता, साहस और धैर्य से वो उचित न्याय नहीं कर पाये।

अनुपम खेर ने अपने आप को मनमोहन सिंग के रूप में ढालते हुये उनके किरदार को व्यंगात्मक रूप प्रदान किया है। जब यह लेखक थिएटर में इस फ़िल्म को देख रहा था, उस समय थिएटर में कुछ युवा थे जो अनुपम खेर के प्रदर्शन पर हंसे जा रहे थे। फ़िल्म में दिखाया गया है के उन्हें के सरा सरा का अर्थ पता नहीं है। ऐसा हो भी सकता है, पर बच्चों की तरह उसे वे दो बार पूछें ये उनके लम्बे अनुभव को शोभा नहीं देता।

यहाँ सिर्फ़ मनमोहन सिंग को ही नहीं, बल्कि सभी राजनितिक व्यक्तित्व को व्यंगात्मक चरित्र के रूप में दर्शाया गया है। हंसल मेहता जो अपने २ मिनिट के विशेष सहभाग में ओड़िसा के मुख्यमंत्री नविन पटनायक बने हैं, वे भी इससे नहीं छूटे। बारु के अनुसार सरकार एक चूहेदानी बनकर रह गयी थी, जिसे दर्शाने के लिये ये सब किया गया है।

विपिन शर्मा के शातिर किरदार अहमद पटेल से कुछ उम्मीदे जगती हैं, जो की गांधी परिवार के विश्वस्त हैं। शर्मा के अक्षय खन्ना के बारु किरदार के साथ की नोकझोंक कुछ मज़ा जरूर लाती है।

पर इस फ़िल्म में सबसे ज़्यादा अगर किसी पर अन्याय हुआ है तो वो है नौकरशाह (ब्यूरोक्रेट्स) और आयएएस अफ़सरों के साथ, जिन्हे संधिसाधु के रूप में दिखाया गया है, जो कथित रूप से अपने राजकीय मालिकोंको ख़ुश करने में लगे होते हैं।

फ़िल्म के असली नायक के रूप में संजय बारू उभरकर आते है। अक्षय खन्ना ने इस बाहरी आदमी, एक पत्रकार जिन्हें परदे के पीछे क्या चल रहा है ये झाँक कर देखने का मौका मिला, उन्हें एक चालाक इंसान की तरह पेश किया जो मनमोहन सिंग को बचाते रहता हैं। उनकी धारणाये अस्पष्ट हैं लेकिन वे भावुक हैं जो सच बोलने के अपने विश्वास की वजह से अपने मित्र को खो देते हैं। उनके चश्मे से हम प्रधान मंत्री और सरकार को देखते हैं।

हाँ, ये जरूर कह सकते हैं के जो दिखता है वो काफ़ी रंगीन है। अक्षय खन्ना इसे दर्शकों के साथ सीधे बात करते हुए अच्छे तरीके से पेश करते हैं, पर अच्छे स्क्रीनप्ले के अभाव में वो ज़्यादा कुछ नहीं कर पाते। 

ये व्यंगात्मक चित्रण शायद काम भी कर जाता अगर इसकी रचना अधिक रोचक होती और संवादों पर अधिक काम किया गया होता। डॉ सिंग के १० वर्ष के कार्यकाल में काफ़ी घटनाएं थीं जिन्हें निर्देशक इस्तेमाल कर सकते थे, पर वैसा नहीं हुआ। फ़िल्म के संघर्षमय क्षणों को सिर्फ़ ऊपरी तौर से चित्रित किया गया है, जहाँ जो सब जानते हैं उससे ज़्यादा कोई भी नयी बात नहीं बताई गयी। कुछ संवादों को मूक कर दिया गया है, कुछ महत्वपूर्ण राजकीय नाम और क्षण हटा दिए गए हैं, जिससे भी फ़िल्म का प्रभाव कम हुआ है।

राजकीय विचारो को प्रभावी रूप से फ़िल्मो में परावर्तित किया जा सकता है। आरोन सॉर्किन की द वेस्ट विंग सीरीज़ इसका उत्तम उदाहरण है। पर यहाँ फ़िल्म के ११० मिनिट में कई सारे पत्रकार परिषद, बातचीत और कुछ निजी खुलासों को दृश्यों में बांध कर फ़िल्म बनाने का प्रयास किया गया है।  

ये सच है के फ़िल्म में डॉ मनमोहन सिंग को बड़ा दिखाने की कोशिश की गयी है, पर ये सब उनकी बुद्धिमत्ता और आत्मसम्मान को ताँक पे रख किया गया है। सुज़ेन बर्नर्ट की सोनिया गांधी को एक धूर्त विधवा के रूप में दिखाया गया है जो अपने बेटे राहुल गांधी (अर्जुन माथुर) के लिये सत्ता और शक्ति का इस्तेमाल करती है। और इसके प्रतीकात्मकता की कल्पना इस बात से की जा सकती है के जब सोनिया गांधी डॉ सिंग से बात कर रही होती हैं तब पीछे इंदिरा गांधी की तसवीर लटकी हुयी दिखती है। दूसरी तरफ डॉ सिंग जब भी बोलते हैं, उनके पीछे महात्मा गांधी की तसवीर लगी हुयी होती है। 

फ़िल्म के संवाद अचेतन हैं। इसीलिए राहुल गांधी हमेशा 'राहुल' कहे गये हैं, जहाँ एक पत्रकार बारु से 'राहुल की हरकत' के बारे में पूछते भी हैं, जो की एक राजनितिक क्रिया को तुच्छ प्रकार से दर्शाता है।  

फ़िल्म के माध्यम से किसी चीज़ को बढ़ावा देने की कोशिश की गयी है ये बात छुपी नहीं है, पर ये प्रयास भी प्रभावहीन है। ये स्पष्ट है की निर्देशक ने राहुल गांधी और सोनिया गांधी को डॉ सिंग से ज्यादा महत्त्व दिया है। डॉ सिंग अब राजनीती में महत्वपूर्ण नहीं हैं। अब सोनिया और राहुल गांधी ही हैं जो आनेवाले चुनाव में अहम भूमिका निभाएंगे।

फ़िल्म के अंत में नरेंद्र मोदी के राहुल गांधी पर किये गये उपरोधिक भाषणों के टुकड़ों से कहानी में कुछ और रंग आते हैं। पर वो एक अलग लेख का विषय है। जैसे के टेनीसन ने कहा है, क्यों ये पूछना हमारा काम नहीं। विजय गुट्टे ने शायद वही मार्ग चुना।