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पंकज कपूर की ५ बेहतरीन फ़िल्में – जन्मदिन विशेष

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महज़ अपनी उपस्थिति से किसी दृश्य को जो खास बना सकते हैं, ऐसे बेहतरीन कलाकार पंकज कपूर ने २९ मई को अपने उम्र के ६५ वर्ष पूरे किये। अपने कमाल के अभिनय से उन्होंने कई फ़िल्मों को यादगार बनाया है। उन्हीं में से ५ फ़िल्मों का ये नज़राना, उनके जन्मदिन के अवसर पर, खास आपके लिए।

Shriram Iyengar

गांधी (१९८२) जैसी फ़िल्म से अपना फ़िल्मी सफर शुरू करना किसी भी कलाकार के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। पर पंकज कपूर के लिए ये सिर्फ़ एक शुरुवात थी। तीन बार राष्ट्रिय पुरस्कार से सम्मानित पंकज कपूर ने अपने खास अभिनय से हिंदी फ़िल्मों में अपनी एक अलग पहचान बनाई है।

जाने भी दो यारों (१९८३) के एक भ्रष्ट कॉन्ट्रैक्टर से लेकर मक़बूल (२००५) के क्रूर गैंग मुखिया तक अपने कौशल्य और विविधता भरे अभिनय से उन्होंने कई किरदारों को न सिर्फ़ जीवित किया है, बल्कि उन्हें यादगार भी बनाया है।

आज के समय के दर्शक उन्हें शायद शाहिद कपूर के पिता के रूप में जानते हों, पर उनके उम्रदराज़ चेहरे के पीछे कई यादगार किरदार छुपे हैं। उनके अभिनय का प्रभाव इरफ़ान ख़ाँ, मनोज बाजपयी, पंकज त्रिपाठी और पियूष मिश्र जैसे कलाकारों पर कैसे पड़ा इसका प्रमाण नीचे दिए गए पांच फ़िल्मों से आपको मिल सकता है।

इस सप्ताह के शुरुवात में २९ मई को पंकज कपूर ६५ वर्ष के हुए। इस अवसर पर उनके कुछ यादगार किरदारों को हम आपके सामने रखने की कोशिश कर रहे हैं।

जाने भी दो यारों (१९८३)

यह फ़िल्म कई फ़िल्म व्यक्तित्वों के लिए ऐतिहासिक थी। नसीरुद्दीन शाह और सतीश शाह से लेकर विधु विनोद चोपड़ा और सुधीर मिश्र तक, जाने भी दो यारों के कलाकर और तंत्रज्ञ की लिस्ट में इंडस्ट्री के आज के कई बड़ी हस्तियों का समावेश है।

इन सभी के बीच पंकज कपूर एक भ्रष्ट और चालाक बिज़नेसमैन की भूमिका निभा रहे थे। जिस आत्मविश्वास और खूबी से उन्होंने इस भूमिका को निभाया, उससे उनके कौशल का प्रमाण मिलता है।

एक रुका हुआ फैसला (१९८६)

सिडनी लुमे की १२ एंग्री मेन (१९५७) के इस टेलीविजन रूपांतरण एक रुका हुआ फैसला में आप युवा पंकज कपूर को एक उम्रदराज़ किरदार में देख सकते हैं। के के रैना एक आदर्शवादी हैं और पंकज कपूर यहाँ न्यायपीठ के एक सदस्य हैं। पंकज कपूर ने इस किरदार को अनोखी शैली में पेश किया। ये फ़िल्म अच्छे संवाद, अच्छे कलाकार और एक नाट्यमय स्क्रिप्ट के साथ क्या कुछ नहीं किया जा सकता इसका एक बेहतर उदाहरण है।

पूरी फ़िल्म एक बड़ी सी रूम में घटती है जहाँ ये १२ न्यायपीठ के सदस्य बैठे फैसला कर रहे हैं। अपने ही पूर्वाग्रह से दूषित इस किरदार को युवा पंकज कपूर ने इस खूबसूरती के साथ निभाया है के आज भी उनका अभिनय देख कर कोई भी प्रभावित हो जाए।

राख (१९८९)

इस फ़िल्म को बड़े परदे पर ठीक ठाक प्रदर्शन भी नहीं मिल पाया। न्वार थ्रिलर शैली की इस फ़िल्म में खून के प्यासे और बदले की आग में झुलसते आमिर ख़ाँ नज़र आये थे। उस समय ऐसी फ़िल्मों का चलना असंभव सा था।

पर इस फ़िल्म को बाद में कल्ट फ़िल्म का दर्जा मिला। यहाँ पंकज कपूर एक निराशावादी और प्रबल पूर्व पुलिस अफसर की भूमिका में थे जो इस युवक का मत परिवर्तन कर देता है। ए श्रीकर प्रसाद की कमाल की एडिटिंग और आमिर ख़ाँ, जिन्हें हमने ऐसी भूमिका में कभी नहीं देखा, ये फ़िल्म दर्शकों के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव है।

इस फ़िल्म के लिए पंकज कपूए को सहायक अभिनेता के राष्ट्रिय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ़ फ़िल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) के साथ इस फ़िल्म का विवाद हुआ था और फ़िल्म को व्यावसायिक प्रदर्शन हासिल न हो पाया। जब २०१५ में इसे फिर से प्रदर्शित करने की बात चल रही थी, कहा जाता है के आमिर ख़ाँ ने अपने इमेज के चलते इसमें कोई रूचि नहीं जताई।

एक डॉक्टर की मौत (१९९०)

इस फ़िल्म के लिए पंकज कपूर को फिर एक बार राष्ट्रिय सम्मान के साथ पुरस्कृत किया गया। ये एक ऐसा किरदार था जो आदर्शवादी इंसान है और अपनी खोज के लिए सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार है।

एक डॉक्टर की मौत का निर्देशन तपन सिन्हा ने किया था, जिन्हें सत्यजीत रे के समकक्ष माना जाता है। इस फ़िल्म में पंकज कपूर अपने पूरे ज़ोर पर दिखते हैं। कपूर के अलावा इस फ़िल्म में शबाना आज़मी और युवा इरफ़ान ख़ाँ भी अहम भूमिका में थे। पर कपूर ने अपने अभिनय से बाकि सभी के अभिनय को भुलाने पर मजबूर कर दिया। एक रोग पर इलाज ढूंढने में अपनी ज़िंदगी लगाने वाले इस किरदार में अपने लाजवाब अभिनय से पंकज कपूर ने जान डाल दी थी।

मक़बूल (२००३)

इस फ़िल्म को उनके करिअर का अलग पड़ाव कहा जाए तो गलत नहीं होगा। मक़बूल (२००३) से शायद इरफ़ान ख़ाँ के करिअर को अलग दिशा मिली थी, पर इस स्कॉटिश नाटक के रूपांतरण में पंकज कपूर के क्रूर अब्बाजी को भुला पाना मुश्किल है। बहुत देर की स्तब्धता के बाद अचानक एक हलके से शब्द से भी वे बता देते हैं के उस किरदार के अंदर कितनी बड़ी ज्वालामुखी है।

इस फ़िल्म ने उन्हें तीसरी बार सर्वोत्तम सहायक अभिनेता के रूप में राष्ट्रिय पुरस्कार दिलवाया। इसके बाद भी उन्होंने और कई फ़िल्मों में काम किया, पर अभी तक इस दर्ज़े का काम फिर से सामने नहीं आया। पर हमें ये पूरा विश्वास है के वे जब चाहें फिर से अपना कमाल दिखा सकते हैं।

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