डॉली ठाकोर, फ़िल्म की भारतीय कास्टिंग डिरेक्टर, फ़िल्म के किस्सों को याद करते हुए बताती हैं के कैसे बेन किंग्ज़ले ने अपने भूमिका की तैयारी की और कैसे उनके उस समय पति रहे अलीक पदमसी को निर्देशक ने दो मिनिट की देरी के लिए डांटा था।
रोहिणी हट्टंगड़ी ने रिचर्ड एटेनबरो की गांधी (१९८२) फ़िल्म के लिए कैसे घटाया अपना वज़न
Mumbai - 30 Jan 2019 5:02 IST
Updated : 31 Jan 2019 22:30 IST
Keyur Seta
भारतीय सिनेमा में इस समय बायोपिक्स की लहर चल रही है और इस महीने तो राजनीती से जुडी बायोपिक्स का ज़ोर था, पर ये शायद चर्चा का विषय बने के इनमेसे कितने उनके निर्माणकर्ताओं के अलावा बाकियों को याद भी रहेंगे।
पर एक बायोपिक है जो ताउम्र याद की जाएगी और वो है सर रिचर्ड एटेनबरो की गांधी (१९८२), जिसमें मोहनदास करमचंद गांधी की कहानी बताई गयी।
इस फ़िल्म को इसके स्टोरी टेलिंग और बेहतरीन अदाकारी के लिए काफ़ी सम्मान और प्रशंसा मिली, पर इसे बनाने में बहुत लोगों की मेहनत थी, जो दर्शकों को आसानी से पता नहीं चलता है।
इस प्रक्रिया का एक अहम और उतना ही मुश्किल हिस्सा था कई सारे किरदारों की कास्टिंग करना। ४९८ भारतीय कलाकारों को कास्ट करने की बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी मिली थी थिएटर अभिनेत्री, दूरदर्शन की वृत्त निवेदिका तथा प्रश्न मंजूषा शो की होस्ट डॉली ठाकोर इन्हे।
आज ठाकोर थिएटर की दुनिया में दिग्गज मानी जाती हैं। वे एक कास्टिंग डिरेक्टर, सामाजिक कार्यकर्ता, सोशलाइट और पिआर कंपनी की हेड हैं। पर १९८० में उन्होंने किसी भी फ़िल्म के लिए कास्टिंग नहीं की थी। फिर भी एटेनबरो ने उन पर विश्वास किया और उन पर इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी दी।
पिछले महीने लोनावला में सम्पन्न हुए लिफ्ट (एल आय एफ एफ टी) इंडिया फ़िल्मोत्सव में डॉली ठाकोर ने गांधी फ़िल्म के कास्टिंग के कुछ रोचक किस्से सिनेस्तान को सुनाये।
गांधी फ़िल्म को ८ ऑस्कर अवार्ड से नवाज़ा गया था, जिसमे सर्वोत्तम अभिनेता, सर्वोत्तम निर्देशक, सर्वोत्तम फ़िल्म और सर्वोत्तम वेशभूषा रचना के लिए किसी भारतीय को मिला सबसे पहला ऑस्कर अवार्ड भानु अथैया (जॉन मोलो के साथ विभागित) शामिल थे।
“मैंने उस फ़िल्म से कास्टिंग के बारे में सबकुछ सीखा। मुझे फिल्मिंग या किसी और चीज़ की कोई जानकारी नहीं थी। मुझमे एक प्रकार का घमंड था। हिंदी फ़िल्मे मुझे पसंद नहीं थीं। पेड़ो के पीछे भागना और गीली साड़ी पहनना ये सब मैं पसंद नहीं करती थी,” बीबीसी लन्दन में रेडियो और टेलीविजन शाखा से शिक्षित डॉली ठाकोर ने सिनेस्तान से बात करते हुए कहा।
यह फ़िल्म उन्हें नसीब से ही मिली। १९७९ में एक दिन ठाकोर की लन्दन की दोस्त रानी दुबे एटेनबरो के साथ उनके घर पहुँची। “उन दिनों मेरे घर बस दो गद्दे हुआ करते थे। रिचर्ड एक गद्दे पर बैठे,” उन्होंने कहा।
ठाकोर और दिग्गज ऍड मेकर और थिएटर निर्देशक अलीक पदमसी तब साथ रहते थे। उनके घर की एक दीवार पर अलीक पदमसी ने निर्देशित किये हुए नाटकों की तस्वीरें लगी हुई थीं। ठाकोर ने अलीक, जो लिंटास ऍड एजेंसी के बॉस थे, उन्हें भी आने के लिए कहा।
उन बातों को याद करते हुए उन्होंने कहा, "रिचर्डने मेरी तस्वीरें देखि। फिर अलीक वहाँ आये। उन्होंने अलीक को देखा और चौंके के कैसे वे जिन्ना की तरह दिखते हैं। वे दिल्ली में फ़िल्म पर काम करने आये थे। तब रिचर्डने मुझे पूछा के क्या मैं फ़िल्म के लिए हिंदी कलाकारों की कास्टिंग के लिए बतौर कास्टिंग डिरेक्टर काम करना चाहूंगी।"
एटेनबरो ने इतना महत्वपूर्ण काम एक नौसिखिये को कैसे सौंपा? ये सवाल पूछने पर उन्होंने कहा, "क्योंकि मैं थिएटर में काम करती थी। और उन्होंने हमारे नाटकों की वो सारी तस्वीरें देखि थी। वो सभी ब्रिटिश नाटक थे। अगर आप थिएटर करते हैं तो आपको चरित्र और उनकी ज़रूरते पता होती हैं।"
गांधी फ़िल्म में महात्मा गांधी के शुरुआती दिनों से उनकी हत्या तक का जीवन प्रवास दर्शाया गया है। बेन किंग्ज़ले को गांधी के लिए ऑस्कर अवार्ड से सम्मानित किया गया था। रोहिणी हट्टंगड़ी ने कस्तूरबा गांधी की भूमिका निभाई थी।
ठाकोर की एटेनबरो से मीटिंग ये उनके लिए मानो सपने का साकार होने जैसा क्षण था। उससे पूर्व उन्होंने कई वर्ष पहले दिल्ली में ब्रिटिश इन्फॉर्मेशन सर्विस (बीआयएस) में उप-संपादक का काम किया था। एक नए, कम उम्र की लड़की को पहले तीन महीने सिर्फ़ अख़बार में आये बीआयएस की बायलाइन वाले लेखों को निकालने की ज़िम्मेदारी दी गयी थी। धीरे धीरे वे तस्वीरें के निचे के कॅप्शन्स लिखने लगीं।
"मैंने जो पहला कॅप्शन लिखा वो था पंडित जवाहरलाल नेहरू की रिचर्ड एटेनबरो और मोतीलाल कोठारी (भारत में जन्मे सिविल सर्वन्ट जो इंडियन हाय कमीशन, लन्दन, में काम करते थे) से मुलाकात। रिचर्ड को उस वक़्त सर या लॉर्ड ऐसा ख़िताब नहीं दिया गया था। ये बात थी १९६२ की, जब वो गांधी फ़िल्म को बनाने की चर्चा करने आये थे। उसके कई वर्ष बाद, एक दिन रिचर्ड सीधे मेरे घर आये!" उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा।
ठाकोर ने ४९८ बोलने वाले किरदारों को कास्ट किया था। इनमेसे कुछ कलाकारों को सिर्फ़ एक ही लाइन बोलनी थी। फ़िल्म के यूनिट के काम करने के तरीकेसे वे काफ़ी प्रभावित थीं। "उनके पास भीड़ के लिए भी निर्देशक था और एक लाइन निर्देशक भी था। उन्होंने भारत में कहीं भी जाकर कलाकारों को चुनने का स्वातंत्र्य दिया था। इसलिए मैं कलकत्ता गयी और शेखर चटर्जी को चुना। मैंने विक्टर बैनर्जी का भी ऑडिशन लिया था, पर उन्हें वो भूमिका नहीं मिल पायी। ज़्यादा तर अभिनेता राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय से ही थे।"
इस फ़िल्म यूनिट के व्यवहारिकता के नियमो से अलीक पदमसी भी नहीं छूट पाए जब वो एक आउटडोर शूट के लिए देरी से पहुंचे। "अलीक को सुबह के ७ बजके १२ मिनिट का समय दिया गया था और वे दो मिनिट लेट पहुंचे," उन्होंने बताया। "यूनिट उनके बगैर ही आगे निकल गया। अलीक को सईद जाफरी के साथ कार में आना पड़ा।"
"जब वे सेट पर पहुंचे, उन्होंने रिचर्ड से कहा के वे बस दो मिनिट लेट हुए थे। रिचर्ड ने कहा, 'उन दो मिनिट के लिए हमें १००० पौंड प्रति मिनिट खर्चा आता है। आपने दो मिनिट देरी से आकर हमारे २००० पौंड बेकार कर दिए।"
रोहिणी हट्टंगड़ी की कास्टिंग की कहानी दिलचस्प है। थिएटर की दीवानी ठाकोर ने उन्हें एक नाटक में देखा और एटेनबरो को सीधे फोन कर बता दिया। एटेनबरो उस वक़्त दिल्ली में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने आये थे। एटेनबरो वहाँ से मुंबई आये और हट्टंगड़ी की ऑडिशन के लिए होटल सेंटॉर में एक रूम बुक किया। "जिस क्षण रोहिणी ने दरवाजा खोला, उसी समय एटेनबरो ने मुझसे कहा, 'अगर ये १०-१५ किलो वज़न कम करती है तो यही मेरी कस्तूरबा है।' रोहिणी को इंग्लिश नहीं आती थी और बड़ी शर्मीली सी थी," उन्होंने कहा।
उसके बाद ठाकोर हट्टंगड़ी के साथ डाइटीशियन के पास गईं। हट्टंगड़ी को काफ़ी कड़क डाइट पालना पड़ा जिसमे दोनों समय सिर्फ एक बाटी दाल और दो चपाती शामिल थे। "उन्हें रोज़ एक से डेढ़ घंटे चलना था। पर वो खुद होकर ये नहीं करती थी। मुझे उसके साथ डॉ विष्णु कक्कर के क्लिनिक में जाना पड़ता, मैं कोने में बैठती और वहाँ वो चलती," ठाकोर ने बताया।
फ़िल्म के शूटिंग के दौरान ठाकोर और बेन किंग्ज़ले में अच्छी दोस्ती हो गयी। उन्होंने किंग्ज़ले की तैयारी के बारे में भी बताया।
"हमें उनके रूम में गांधीजी के अनेक पोज़ेस की तस्वीरें लगानी पड़ी और हर प्रकार के फर्नीचर हटाने पड़े," उन्होंने बताया। "उन्हें सीखना था के पैरो को मोड़ कर कैसे बैठते हैं, साथ ही जमीन या फर्श पर कैसे सोते हैं। हमने योगा और चरखा सिखाने के लिए लोग बुलाए थे। उन्होंने कैसे हसना है, सर को पीछे ले जाकर गांधीजी की तरह कैसे मुस्कुराना है, ये सारी चीज़ें सीखीं। उन्होंने मांसाहार को उस समय के लिए बंद कर दिया।"
भारत में लोग हमेशा फ़िल्मों के किरदारों को असली कलाकार के साथ जोड़ कर उलझते हैं और यही बात शूटिंग के दौरान बेन किंग्ज़ले के साथ हुयी। "उन्होंने बियर पी थी और प्रेस ने ये कहा के गांधी पी रहे हैं," उन्होंने हसते हुए कहा।
उस समय ठाकोर को ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि वे किसी बड़ी क्लासिक का हिस्सा बनी हैं। "ये गांधी पर बनी पहली फ़िल्म थी। ये एक विदेशी फ़िल्म थी और रिचर्ड एटेनबरो काफ़ी जानामाना नाम था। फिर भी हमने ऐसा कभी नहीं सोचा था," उन्होंने कहा।
गांधी फ़िल्म को सर्वोत्तम ओरिजिनल स्क्रीनप्ले, सर्वोत्तम सिनेमैटोग्राफी, सर्वोत्तम फ़िल्म एडिटिंग तथा सर्वोत्तम प्रॉडक्शन डिज़ाइन के लिए भी ऑस्कर अवार्ड मिले।
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