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पीफ २०१९ – गोविंद निहलानीने एटनबरो से गांधी फ़िल्म में बोस के ना होने के बारे में पूछा था

१७ वे पुणे इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में निर्देशक गोविंद निहलानी ने रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म गांधी के सेकंड यूनिट निर्देशक के अपने अनुभव को साँझा किया।

गोविंद निहलानी, डॉ जब्बार पटेल और रोहिणी हट्टंगडी पुणे अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव के मंच पर

पुणे इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल के विचार मंच का ११ जनवरी से आरंभ हुआ, जहाँ अभिनेत्री रोहिणी हट्टंगड़ी और निर्देशक गोविंद निहलानी के चर्चा सत्र से इसका आगाज़ हुआ। दोनों मान्यवरों ने रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म गांधी (१९८२) के अपने अनुभवों को साँझा किया। 

महात्मा गांधी की १५० वी जन्मशताब्दी के उपलक्ष में इस महोत्सव की इस वर्ष की थीम रखी गयी है ‘सत्य की खोज में’।

अकैडमी अवार्ड में गांधी फ़िल्म को ११ नामांकन मिले थे। फ़िल्म को ८ विभागों में पुरुस्कृत किया गया जिसमे सर्वोत्तम फ़िल्म और सर्वोत्तम निर्देशक अवार्ड रिचर्ड एटनबरो को और सर्वोत्तम अभिनेता का अवार्ड बेन किंग्सल को मिला था।

फ़िल्म के ऑडिशन प्रोसेस को याद करते हुये रोहिणी हट्टंगड़ी ने कहा, “सच कहूँ तो जब मुझे चुना गया तो मुझे फ़िल्म के स्तर का आकलन नहीं था। मुझे लगा के मुझे बस एक २७ से ७४ वर्ष का किरदार करना है। मैं काफ़ी उत्साहित थी क्योंकि ये मेरी बस ४थी फ़िल्म थी।”

रोहिणी हट्टगंड़ी ने फ़िल्म में कस्तूरबा गांधी की भूमिका निभाई थी। 

“बाकि जो अभिनेत्रियां इस भूमिका के लिए जुटी हुयी थीं वे थीं भक्ति बर्वे और स्मिता पाटिल। दोनों भी बेहतरीन अभिनेत्रियां थीं। पर सर एटनबरो के अनुसार, मैं उन्हें ऐसे ही पुकारती थी, कस्तूरबा से मैं उन दोनों से ज़्यादा मेल खाती हूँ और इसलिए उन्होंने मुझे उस भूमिका के लिए चुना,” उन्होंने कहा।

रोहिणी हट्टंगड़ी को इस भूमिका के लिए सर्वोत्तम सहायक अभिनेत्री का बी ए एफ टी ए (बाफ्टा) अवार्ड मिला, जिसे हासिल करनेवाली वे एकमात्र भारतीय अभिनेत्री हैं।

गोविंद निहलानी इस फ़िल्म में सेकंड यूनिट निर्देशक थे। जब कुछ दिन ब्रिटिश कैमरामैन बीमार थे तो उन दिनों में कैमरामैन की बागडौर भी उन्होंने संभाली थी। उन्होंने कहा के वे भाग्यशाली थे के सिर्फ़ आक्रोश (१९८०) जैसी एक फ़िल्म के निर्देशन के बाद ही उन्हें गांधी पर काम करने का मौका मिला।

“गांधी मेरे लिए भाग्य की बात थी। मैंने सिर्फ़ एक ही फ़िल्म की थी, आक्रोश, और उसके बाद मुझे ये फ़िल्म मिली। चूँकि ये यूके-इंडो को-प्रॉडक्शन था, रिचर्ड एटनबरो चाहते थे के भारतीय टेकनीशियन्स इस फ़िल्म पर काम करें। एटनबरो उन्होंने चुने हुए निर्देशकों का काम देखना चाहते थे। उन्होंने आक्रोश देखी,” उन्होंने कहा।

फ़िल्म देखने के बाद उन्होंने निहलानी को बातचीत के लिए बुलाया। “गांधी के कैमरामैन रॉनी टेलर को मेरा काम पसंद आया था और उन्होंने मुझे मदद की। उन्होंने मेरी फ़िल्म से जो दृश्य उन्हें पसंद आया था वो भी बताया और किसी एक दृश्य के लाइटिंग की भी तारीफ की। मेरे लिए वो आश्चर्य की बात थी क्योंकि मेरे लिए वो दृश्य खास नहीं था,” उन्होंने आगे बताया।

“शायद उन्हें गांधी में जैसा लुक और फील चाहिए था वो उसमे मिल गया हो,” उन्होंने कहा।

गांधी फ़िल्म में निहलानी का काम और उन्होंने ख़ुद निर्देशित की हुयी फ़िल्मे एकदूसरे से बिलकुल विरुद्ध थे। उनकी फ़िल्मो में हिंसा का अर्थ खोजा जाता था। वहीं दूसरी तरफ गांधी फ़िल्म महात्मा गांधी के जीवन के अहम हिस्सों को तथा उनके अहिंसा के विचार को दर्शाती है।

निहलानी बताते हैं के उन्हें पहले पूरी स्क्रिप्ट दी गयी और कहा गया के इसे पूरा पढ़ें और फिर बताये के इस पर काम करना पसंद करेंगे या नहीं। 

स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद फ़िल्म को हाँ कहने से पूर्व उन्होंने एक बार एटनबरो से मिलने की इच्छा जतायी। “मैंने उनसे कुछ पूछा। मैंने कहा, ‘सर, आपकी स्क्रिप्ट अच्छी है। पर भारत की स्वतंत्रता की इस पूरी कहानी में सुभाष चंद्र बोस कहीं क्यों नहीं हैं? आपकी स्क्रिप्ट में उनका उल्लेख मात्र भी नहीं है।

"उन्होंने कहा, ‘मैं समझता हूँ, तुम सही हो।' उन्होंने कहा स्क्रिप्ट लिखते वक़्त उन्हें ये लगा के सुभाष चंद्र बोस इतने बड़े व्यक्तित्व थे के अगर हम उनको फ़िल्म में लाते तो उन्ही पर एक अलग फ़िल्म बनती। वो दुय्यम व्यक्तित्व के रूप में सामने नहीं आ सकते थे,” निहलानी ने आगे बताया।

“इसीलिए उन्होंने उनका सारा ध्यान गांधीजी के अहिंसा आंदोलन के तत्वज्ञान पर केंद्रित किया,” उन्होंने कहा।