दो निर्देशकों के बावजूद फ़िल्म अपने उत्तरार्ध तक, जहाँ इसके ज़्यादातर आकर्षण बिंदु हैं, पहुंचने में कई मोड़ लेती है।
मणिकर्णिका रिव्ह्यु – कंगना रनौत की क्रन्तिकारी रानी अपना अस्तित्व तो कायम करती है, पर देरसे
Mumbai - 24 Sep 2018 15:11 IST
Updated : 26 Jan 2019 4:32 IST
Shriram Iyengar
फ़िल्म के प्रदर्शन पूर्व ही, अपने किरदार रानी लक्ष्मीबाई की तरह, कंगना रनौत ने भी अपनी बात पर कायम रहते हुये करनी सेना से माफ़ी मांगने से इंकार किया था। व्यक्तित्व और भूमिका को देखते हुये कंगना से बेहतर अभिनेत्री रानी लक्ष्मीबाई के किरदार के लिए पाना मुश्किल था।
कंगना का अपने से बड़े लोगों से जूझते हुए अपने मार्ग की खोज करने का सफर रानी लक्ष्मीबाई के जुझारू किरदार से मेल खाता है। फिर भी मणिकर्णिका – द क़्वीन ऑफ़ झाँसी बिखरे हुए स्क्रीनप्ले, बहुत ज़्यादा किरदार और नाट्यमयता के अभाव से आपकी उम्मीदों पर उतनी खरी नहीं उतर पाती। फ़िल्म के एक्शन दृश्य और देशभक्ति का जज़्बा आपको छू लेता है, पर बस वहीं तक ही उसकी सीमा है।
पहली बार हम मणिकर्णिका (कंगना रनौत) को वाराणसी में मिलते हैं, जहाँ उसका नाम वहाँ के प्रसिद्ध घाट के नाम से रखा जाता है। अमिताभ बच्चन की जानदार आवाज़ हमें उसका परिचय कराती है।
“इतिहास इसे हमेशा याद करेगा,” ऐसी भविष्यवाणी ज्योतिष करते हैं। झाँसी के राजा गंगाधर राव (जीशू सेनगुप्ता) से मणिकर्णिका का विवाह होता है। मुक्त जीनेवाली, युद्ध शास्त्र तथा शिक्षा में पारंगत मणिकर्णिका ब्रिटिशों के मातहत चल रहे झाँसी में उसे स्वतंत्रता की नयी ऊर्जा देने आती है।
ब्रिटिशों को ये बात ठीक नहीं लगती, ना ही सदाशिवराव (मो जीशान अयूब) को, जो की झाँसी के अगले हकदार हो सकते थे। वो मणिकर्णिका के पतन की तैयारी में लगते हैं। इस तरह झाँसी पर धीमे गती से वार चल रहे हैं। अयूब ने एक स्वार्थी इंसान जिसका झाँसी के पतन में अहम हिस्सा है, उसकी भूमिका अच्छी तरह निभाई है, पर फ़िल्म में अपना हुनर दर्शाने जितना उनके पास ज़्यादा कुछ था ही नहीं।
बाहुबली फ्रैंचाइज़ लिखने वाले विजयेंद्र प्रसाद ने इस फ़िल्म का स्क्रीनप्ले लिखा है जो की अपने पहले हिस्से में यहाँ वहाँ काफ़ी घूमते रहता है। हालाँकि सोहराब मोदी की इसी विषय पर १९५३ में आयी फ़िल्म की तरह ही ये फ़िल्म बढ़ती है पर इसके महत्वपूर्ण प्रसंगों के दृश्यांकन में ये फ़िल्म अलग हो जाती है। सोहराब मोदी की फ़िल्म में जहाँ इस विषय पर ज़ोर दिया गया था के ईस्ट इंडिया कंपनी ने झाँसी पर किस तरह अन्याय पूर्वक कब्ज़ा किया था जिसकी वजह से फिर संग्राम उठा, वहीं कंगना की फ़िल्म में ब्रिटिशों के अमानवीय और असभ्य बर्ताव को संग्राम के उठाव की वजह बताया गया है। अंग्रेज़ पशुओं को खाने के लिए चुराते हैं, राजा के प्रति आदर नहीं दर्शाते और उनके मनमर्ज़ी तकलीफ़ देते हैं।
फ़िल्म सभी क्रांतिकारियों को अच्छा और ब्रिटिशों को बुरा ऐसे एक ही रंग में नहीं दिखाती। स्वतंत्रता के पहले संग्राम में, जिसका एक नेतृत्व झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई भी कर रही थीं, वहीं कुछ क्रन्तिकारी सिपाहियों का ब्रिटिश महिलाओं और बच्चों से दुर्व्यवहार भी दिखाया गया है।
फ़िल्म के पहले हिस्से में लक्ष्मीबाई का स्त्रीवादी रूप भी दिखाई देता है जब वे स्त्रियों पर लादे गये बंधनो को तोड़ रही हैं। जिस तरह वे रास्ते पर आती हैं, गाववालो के साथ नाचती हैं, ये सब क्रिएटिव्ह रचना के लिए किया गया है। पर उनके प्रसूति और बच्चे और पती को खो देने का दृश्यांकन उतना प्रभावी नहीं हो पाया है।
ईस्ट इंडिया कंपनी के दबाव में फंसे झाँसी के राजा की भूमिका में जीशू सेनगुप्ता कुछ खास नहीं कर पाए। तात्या तोपे (अतुल कुलकर्णी) और झलकारी बाई (अंकिता लोखंडे) को ज़्यादा समय नहीं दिया गया है। डैनी डेंजोंगपा के घौस खॉं को पहले अंतराल तक महज घोषणा देनेवाले के रूप में दर्शाया गया है, जो दूसरे हिस्से में युद्ध का महत्वपूर्ण घटक बनता है।
इन दिनों किसी भी ऐतिहासिक फ़िल्म के तथ्यों पर विश्वास करना मुश्किल है, जहाँ फ़िल्मकार फ़िल्म के शुरुआत में ही डिस्क्लेमर डाल देते हैं कि ‘क्रिएटिव्ह रचना के लिए कुछ हिस्सों को नाट्यमयता प्रदान की गयी है।’ फिर भी कंगना रनौत और क्रिश (निर्देशक) की इस फ़िल्म ने रानी लक्ष्मीबाई की जानी पहचानी कहानी का ही सहारा लिया है। उनका थोपे गए युद्ध से निकलना, कलपि में तात्या तोपे और नानासाहेब से फिर से जुड़ना और ग्वालियर का अंतिम युद्ध ये सभी अपनी क्रमानुसार ही आते हैं।
प्रॉडक्शन डिज़ाइन काफ़ी आकर्षक है, महल और युद्धभूमि के दृश्य मोह लेते हैं।
कंगना अपने किरदार में आने के लिए थोड़ा समय लेती हैं। फ़िल्म के पहले हिस्से में जब नयी रानी अपने राज्य के राजनीती को समझने की कोशिश कर रही है, इन दृश्यों में कंगना खास प्रभाव नहीं डालती। जीशू सेनगुप्ता के साथ रोमांटिक दृश्य भी सहज नहीं लगते। उनका लहज़ा और पिच दोनों शुरुआत में अजीब लगते हैं, पर फ़िल्म के दूसरे हिस्से में वे बेहतर लगते हैं।दुःख और पीड़ा के दृश्यों में भी वे मैलोड्रामैटिक लगती हैं, खास कर अपने बच्चे की मौत के दृश्य में।
पर अंतराल के बाद वे जबरदस्त संवादों के साथ पहले हिस्से की कमी को दूर कर देती हैं। एक्शन दृश्य भी दूसरे हिस्से में ही हैं। कंगना अंतिम युद्ध में अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रही हैं, जो की ब्रेवहार्ट (११९५) के तर्ज़ पर की गयी है।
बाकी किरदारों में अंकिता लोखंडेने अपने किरदार में अच्छा काम किया है। अतुल कुलकर्णी और डैनी डेंजोंगपा का मुख्य काम दूसरे हिस्से में ही है, पर वहाँ भी रानी लक्ष्मीबाई के किरदार के सामने वो नज़रअंदाज़ ही होते हैं।
रिचर्ड कीप जिन्होंने मेजर जनरल ह्यु रोज़ (रानी लक्ष्मीबाई का मुख्य शत्रु) की भूमिका निभाई है, आपका ध्यान आकर्षित करते हैं। उनके पास क्रूर और खतरनाक दिखने के अलावा ज़्यादा कुछ करने को नहीं है, पर वे भी प्रभावी हैं। सभी इंग्लिश कलाकारों में शायद वही थे जिन्हे अपने किरदार के बारे में पता था।
यहाँ कुछ बड़े कंटीन्यूटी के मुद्दे भी हैं जिसे आप सहज पकड़ सकते हैं। ब्रिटिश अफ़सर अमेरिकन लहज़े में क्यों बात करते हैं, ये भी समझ नहीं आता। ब्रिटिश अफ़सर के कपडे प्रसिद्ध यूनियन जैक रेड से फ्रेंच ब्ल्यू हो जाते है।
फ़िल्म देशभक्ति के रस का अभूतपूर्व चित्रण करती है, रानी लक्ष्मीबाई के स्वतंत्र भारत के सपने को और ब्रिटिशों से लड़ाई को दर्शाती है। और ये करते वक़्त वो राष्ट्रनिष्ठा के उथल हिस्से को छेड़ती है, जो ज़रूरत से ज़्यादा ड्रामैटिक हो गयी है।
मणिकर्णिका – द क़्वीन ऑफ़ झाँसी ये कहानी बताना ज़रूरी तो था ही, पर उसे और बेहतर ढंग से बताना भी ज़रूरी था।
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